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________________ ३१४ : सम्बोधि ... मुनि वही हो सकता है, जो संसार से उद्विग्न है, जिसमें आत्म-हित का उत्कृष्ट अभिलाषा है। भोग का वियोग देखने वाला व्यक्ति ही योग का अनुसरण कर सकता है। संवेग (मुक्ति-अभिलाषा) और निर्वेद (भव-विरक्ति) ही व्यक्ति को मुनि बना सकती है। इन दोनों की अपूर्णता में मुनि-जीवन सम्भव नहीं होता। किन्तु इससे हम संवेग और निर्वेद की आंशिकता का निषेध नहीं कर सकते। गृहस्थ में भी विचारों की तरतमता देखी जाती है। कुछ व्यक्ति गीता को दृष्टि में तमोगुणी होते हैं, कुछ रजोगुणी और कुछ सतोगुणी। सतोगुणी व्यक्ति सद्ज्ञान प्रधान होते हैं। वे कर्तव्य-अकर्तव्य के बीच विवेक कर सकते हैं। रजोगुणी व्यक्तियों में लोभ, इच्छा, भोग आदि की प्रधानता होती है। तमोगुणी अज्ञान और मूढ़ता से आच्छन्न रहते हैं। ये व्यक्ति उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। विचारों की इस त्रिविधता को हम धर्म और अधर्म के शब्दों में बांधे तो राजसिक और तामसिक गुण अधर्म है और सात्विक गुण धर्म है। सरलता, समता, सद्भावना, सहिष्णुता, मनःशौच आदि गुणधर्म हैं। जिन व्यक्तियों को इनका पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है वे गुणातीत दशा को पा लेते हैं। लेकिन अभ्यासकाल में इन गुणों के आधार पर ही वे धार्मिक होते हैं । गृहस्थ भी समता, संवेग आदि भावों से धार्मिक हैं। जितने अंशों में इनका विकास है वह उतने ही अंशों में धार्मिक भी है। शक्ति के दो रूप द्विविधं विद्यते वीर्य, लब्धिश्च करणं तथा । अन्तरायक्षयाल्लब्धिः, करणं वपुषाश्रितम् ॥१४॥ १४. वीर्य के दो प्रकार हैं- (१) लब्धिवीर्य-योग्यतात्मक शक्ति, (२) करणवीर्य-क्रियात्मक शक्ति। अन्त राय के दूर होने पर लब्धि का विकास होता है और शरीर के माध्यम से करण का प्रयोग होता है। वपुष्मतो भवेद् वाणी, मनोऽप्यस्यैव जायते। शारीरिकं वाचिकञ्च, मानसं तत् त्रिधा भवेत्॥१५॥ १५. जिसके शरीर होता है उसी के वाणी और मन होते हैं । इसलिए करणवीर्य तीन प्रकार का होता है-शारीरिक, वाचिक और मानसिक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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