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________________ ३१२ : सम्बोधि केवल बाहर से आया है, भीतर से उत्पन्न नहीं हुआ। गृहस्थ के और उसके जीवन में वेष के अतिरिक्त विशेष अन्तर नहीं रहता।। गृहस्थ अनासक्ति और आसक्ति के मध्य गति करता रहता है। वह सर्बथा इन्द्रिय और मन के अनुराग से मुक्त नहीं हुआ है। उसके पैर दोनों दिशाओं में चलते हैं । लेकिन वह जानता है कि मंजिल यह नहीं है। उसे ममत्व से मुक्त होना है। इसलिए वह स्थूल से सूक्ष्म, दृश्य से अदृश्य और भ्रांति से सत्य की तरफ सचेष्ट रहता है।। अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह यह व्यक्त करता है कि व्यक्ति भीतर में आसक्त है। आसक्ति के टूटने पर वस्तुओं का संग्रह हो, यह अपेक्षित-सा नहीं लगता। उसके पीछे कोई अन्य कारण हो तो भिन्न बात है। त्याग नही कर सकता है जो आसक्ति से मुक्त है। आसक्त व्यक्ति छोड़कर भी बहुत इकट्ठा कर लेता है। सामान्य व्यक्ति वस्तुओं को पकड़ते हैं और उनपर राग-द्वेष का आरोपण करते हैं, किन्तु राग-द्वेष पर प्रहार नहीं करते। जब कि मूल है-राग-द्वेष। धर्म की मूल साधना है- समता, राग-द्वेष-मुक्त प्रवृत्ति । यदि धार्मिकों का जीवन राग-द्वेष से मुक्त होता तो निसन्देह यत् किंचित् मात्रा में सफलता मिलती। लकीर को पीटने से सांप नहीं मरता। वस्तु-त्याग वास्तविक त्याग नहीं है। महावीर ने कहा है-परिग्रह-मूर्छा आसक्ति है। आसक्ति का त्याग न कर, केवल जिसने घर को छोड़ दिया, वह न मुनि है और न गृहस्थ । कबीर ने कहा है-'आसन मारके बैठा रे योगी आश न मारी जोगी'-योगी आसन जमा कर बैठा है किन्तु आशा-आकांक्षा को नहीं मारा। वस्तुओं का संग्रह आसक्ति से होता है। आसक्त व्यक्ति बाहर से स्वयं को भरने का यत्न करता है। अनासक्त भीतर के रस से आप्लावित होता है। वह बाहर से भरने में कोई सार नहीं देखता। वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता। वह देखता है-वस्तुएं वस्तुएं हैं। इनकी उपयोगिता बाहर के लिए है, भीतर के लिए नहीं। ध्रुवीय प्रदेशों में एक एस्किमों परिवार है। धार्मिकों को भी उनसे बहुत कुछ सीखने जैसा है। एक फ्रेंच यात्री पहली बार गया। उसने लिखा है-मैंने उनसे ज्यादा सम्पन्न व्यक्ति नहीं देखे। वह उनके रीति-रिवाजों से अपरिचित था। जिस घर में वह ठहरा था, उसने वहां देखा, जूते बड़े सुन्दर हैं। मन प्रसन्न हो गया। उसने कहा- जूते सुन्दर हैं। तत्काल वे उसे दे दिए। उनके पास दूसरा जोड़ा नहीं था, बर्फ पर चलना। और भी कोई सुन्दर चीज देखी और उसने कहा, वैसी ही चीज मिल गई। उसने सोचा वह क्या बात है ? घर में एक वृद्ध सज्जन थे । उसने पूछा क्या बात है ? वृद्ध ने जो कहा, वह बहुत गहरे धर्म की बात है 'चीजें-चीजें हैं वे किसी की नहीं। जिनके पास हैं उनके लिए अब व्यर्थ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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