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३०६ : सम्बोधि
आत्मा सब में है, किन्तु उसके होने का अनुभव सबको नहीं है। जिसमें अनुभव है, आत्मा का जन्म वहीं है। जो उसे प्रकट करने में उद्यत होता है वही साधक होता है। फिर वह चाहे श्रमण-मुनि, भिक्षु हो या गृहस्थ । आत्मा का सम्बन्ध बाहर से नहीं, अन्तर्जागरण से है। उसके लिए अभीप्सा प्रबल चाहिए। महावीर का यही घोष है कि आत्मवान बनो। अपने भीतर है उसे खोजो। अनात्मवान कोई भी हो सब समान है। जिसने आत्मा को साधा, पाया वही धन्यवादाह है। बुद्ध ने आनन्द से कहा-'आनन्द तू धन्य है, जो प्रधान साधना में लग गया।
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