________________
अध्याय १३ : ३०५ सावधान करते हुए कहा है- 'भोग क्षणभंगुर है, साधक ! तू इनमें प्रेम मत कर ।' साधक भोग में रोग भय देखे, अदृष्ट के प्रति पूर्ण आस्थावान बने ।
अदृष्ट के बिना दृष्ट का कोई अर्थ नहीं होता । दृष्ट के पीछे अदृष्ट की शक्ति काम कर रही है । यह स्पष्ट है किन्तु वहां तक पहुंच कठिन है । अंधी, बहरी 'हेलन कीलर' से पूछा - इस संसार में सबसे आश्चर्यजनक घटना क्या है ? उसने कहा -- लोगों के पास कान हैं, पर शायद ही कोई सुनता हो, लोगों के पास आंखें हैं पर शायद ही कोई देखता हो और लोगों के पास हृदय है पर शायद ही कोई अनुभव करता हो । बस, यही आश्चर्यजनक घटना है । 'हेलन कीलर' का आशय है— मनुष्य अपने सेंटर (केन्द्र) अदृश्य से परिचित नहीं है ।
दृष्ट का आकर्षण व्यक्ति को मूढ बना देता है जो बाहर में उलझ जाए वही मूढ होता है । भले, चाहे वह विद्वान् हो या अविद्वान् । वस्तुएं जब व्यक्ति को पकड़ लेती हैं तब कैसे वह अदृष्ट को खोज सकता है। महावीर कहते हैं-दृश्य जगत ही सब कुछ नहीं है । दृश्य जगत की उपादेयता अदृश्य के होने पर ही है । इन्द्रियां, मन अदृश्य की शक्ति के बिना व्यर्थ हैं । इन्द्रिय जगत के पीछे उनका एक सञ्चालक है । उसे भूलना ही संसार है । साधक दृष्ट में विरक्त हो और अदृष्ट में अनुरक्त हो, दृष्ट से वियुक्त हो और अदृष्ट से संयुक्त हो, दृष्ट में अज्ञ हो और अदृष्ट में विज्ञ हो -- इसी से जीवन में एक नया आयाम खुल सकता है ।
श्रमणो वा गृहस्थो वा यस्य धर्मे मतिर्भवेत् । आत्माऽसौ साध्यते तेन, साध्ये कुर्यात् स्थिरं मनः ॥ ३६ ॥
३६. जिसकी मति धर्म में लगी हुई है वह श्रमण हो या गृहस्थ, साध्य में मन को स्थिर बनाकर आत्मा को साध लेता है ।
आत्मा की जब आत्मा में स्थिति हो जाती है, तब उसका कार्य सिद्ध हो जाता है । इसका अधिकारी मुमुक्षु है । मुमुक्षुभाव की जिसमें जितनी प्रबलता होती है, वह उतना ही आत्मा के निकट पहुंच जाता है । मुमुक्षु के लिए जाति, वर्ण, क्षेत्र आदि की कोई मर्यादा नहीं है ।
चाहे गृहस्थ हो या साधु, जो संयम के मार्ग पर बढ़ रहा है, जिसका मुमुक्षाभाव प्रज्वलित है, वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है ।
भगवान महावीर इतने उदारचेता थे कि उन्होंने लक्ष्य-सिद्धि की बात किसी वेश, लिंग या व्यक्ति से नहीं जोड़ी । उन्होंने स्पष्ट कहा - 'चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, चाहे जैन हो या जैनेतर, चाहे स्त्री हो या पुरुष- - सब मुक्त हो सकते हैं, यदि वे अनुत्तर संयम का पालन करते हैं ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org