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________________ आमुख १ : ३ एक दिन बीत गया । मेघकुमार की दीक्षा की तैयारियां होने लगीं । आवश्यक उपकरण लाये गए । परिवार और नगरजनों से परिवृत होकर मेघकुमार भगवान् महावीर के पास आया। माता-पिता ने भगवान् से निवेदन करते हुए कहा'देव ! हमारा यह पुत्र मेघ आपके चरणों में प्रव्रजित होना चाहता है । यह नवनीतसा कोमल है। यह प्रचुर काम-भोगों के बीच पला- पुसा है फिर भी काम-रजों से पृष्ट नहीं है, भोगों में आसक्त नहीं है। पंक में उत्पन्न होने वाला पंकज पंक से लिप्त नहीं होता, वैसे ही यह कुमार भोगों से निर्लिप्त है । आप इसे अपना शिष्य बनाकर हमें कृतार्थ करें ।' ――――――― भगवान् ने मेघ को प्रब्रजित करने की आज्ञा दी । मेघकुमार अपने आभूषण उतारने लगा। यह दृश्य देख मां का मन विह्वल हो उठा । वह अपने राजपुत्र को एक अकिंचन भिक्षु के रूप में घर-घर भिक्षा के लिए भटकता देखना नहीं चाहती थी । उसका मन रोने लगा। हृदय फटने लगा, पर भगवान् महावीर ने स्वयं मेघकुमार को प्रव्रजित किया, उसका लुंचन किया । भगवान् ने स्वयं उसे साधुचर्या की जानकारी देते हुए कहा - 'वत्स ! अब तुम मुनि बन गए हो । अब तुम्हारे जीवन की दिशा बदल गयी है । अब तुम्हें यतनापूर्वक चलना है, यतनापूर्वक बैठना है, यतनापूर्वक सोना है, यतनापूर्वक खड़े रहना है, यतनापूर्वक बोलना है और यतनापूर्वक ही भोजन करना है । इस चर्या में लेशमात्र भी प्रमाद न हो । यतना संयम है, मोक्ष है । अयतना असंयम है, बंधन है । पहला दिन बीता । रात आयी । विधि के अनुसार सभी श्रमणों का शयनस्थान निश्चित हुआ। मुनि मेघकुमार एक दिन का दीक्षित मुनि था । उसका शयन -स्थान सबसे अंत में आया । वह स्थान द्वार के पास था । रत्नाधिक मुनि स्वाध्याय आदि के लिए रात्रि में बाहर आने-जाने लगे। कुछ मुनि प्रस्रवण के लिए बाहर निकले। उस समय द्वार के पास सोये मुनि मेघकुमार की नींद उचट गयी । सर्वत्र अंधकार व्याप्त था । स्पष्ट कुछ भी नहीं दीख रहा था । बाहर आतेजाते मुनियों के पैर-स्पर्श से मुनि मेघ विचलित हो गया । शरीर धूलिमय हो गया। उसने नींद लेने का बहुत प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ । उसने सोचा- 'मैं राजकुमार था । कितने सुख में पला- पुषा ! सब प्रकार की सुविधाएं मुझे उपलब्ध थीं। सारे श्रमण मुझसे बात करते, मेरा आदर-सम्मान करते । मुझसे मीठी-मीठी तें करते और मुझे नाना प्रकार के रहस्य समझाते । आज मैं प्रव्रजित हो गया । Baat मंडली में आ मिला। अब कोई भी श्रमण न मेरे से बात करता है और न मेरा आदर-सम्मान ही करता है । वे सब मुझे ठोकरें लगा रहे हैं, नींद भी नहीं ले पा रहा हूं। इस अनपेक्षित मुनि जीवन से अच्छा है कि मैं पुनः गृहवास में चला जाऊं। वहां मेरा पूर्ववत् ठाटबाट रहेगा । सूर्योदय होते ही मैं भगवान् महावीर को पूछकर घर चला जाऊंगा ।' For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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