SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ : सम्बोधि दृष्टि से दोनों समकक्ष हैं। ___ संयम में चक्रवर्ती और सेवक का भेद मिट जाता है। वहां समता का साम्राज्य रहता है। मनः साहसिको भीमो, दुष्टोऽश्वः परिधावति । सम्यग् निगृह्यते येन, स जनो नैव नश्यति ॥३१॥ ३१. मन दुष्ट घोड़ा है। वह साहसिक और भयंकर है। वह दौड़ रहा है। उसे जो भली-भांति अपने अधीन करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। उन्मार्गे प्रस्थिता ये च, ये च गच्छन्ति मार्गतः। सर्वे ते विदिता यस्य, स जनो नैव नश्यति ॥३२॥ ३२. जो उन्मार्ग में चलते हैं और जो मार्ग में चलते हैं वे सब जिसे ज्ञात हैं, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। आत्मायमजितः शत्रुः, कषायाः इन्द्रियाणि च । जित्वा तान् विहरेन्नित्यं, स जनो नैव नश्यति ॥३३॥ ३३. कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। वह आत्मा भी शत्रु है जो इनके द्वारा पराजित है। जो उन्हें जीतकर विहार करता है वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। रागद्वषादयस्तीवाः, स्नेहाः पाशा भयंकराः । ताञ्छित्वा विहरेन्नित्यं, स जनो नैव नश्यति ॥३४॥ ३४. प्रगाढ़ राग-द्वेष और स्नेह-ये भयंकर पाश हैं। जो इन्हें छेदकर विहार करता है वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। अन्तोहृदयसम्भूता, भवतृष्णा लताभवेत् । विहरेत्तां समुच्छित्य, स जनो नैव नश्यति ॥३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy