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________________ अध्याय १३ : ३०१ भगवान् महावीर जातिवाद के विरोधी थे । उन्होंने कहा - यह अधर्म है, उन्माद है, जो कि अतात्त्विक को तात्त्विक मानता है । जो व्यक्ति इन्हें शाश्वतता का चोला पहनाता है, वह मूढ़ है । यस्तिरस्कुरुतेऽन्यं स संसारे परिवर्तते । मन्यते स्वात्मनस्तुल्यानन्यान् स मुक्तिमश्नुते ॥२६॥ २६. जो दूसरे का तिरस्कार करता है वह संसार में पर्यटन करता है और जो दूसरों को आत्म-तुल्य मानता है वह मुक्ति को प्राप्त होता है । मुक्ति विषमता में नहीं, समता में है। घृणा, तिरस्कार, अपमान में विषमता है । इनका प्रयोग प्रयोक्ता पर ही प्रहार करता है । वह कभी उठ नहीं सकता । शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक - तीनों ही दृष्टि से उसका पतन होता है। आज के मनोवैज्ञानिकों ने इसे कसौटी पर कसा है। 'शत्रु को बार-बार क्षमा कर दो - इस प्रकार का आचरण कर रक्तचाप, हृदयरोग, उदर- व्रण आदि अन्य कई व्याधियों से दूर रह सकते हैं । मिल्वो की पुलिस विभाग के एक बुलेटिन में लिखा है - 'जब आप जैसे के साथ तैसा करते हैं तो अपने शत्रु को दुःखी करने के बजाय आप स्वयं दुःखी बन जाते हैं। घृणा का परिणाम कभी भी अच्छा नहीं होता ।' अब्राहम लिंकन ने कहा था- 'उदारता सबके लिए करो, पर घृणा किसी के लिए नहीं ।' बाइबिल कहती है - 'प्यार से खिलाए गए कंद-मूल घृणा से खिलाये गए पकवान से अधिक स्वादिष्ट लगते हैं । अनायको महायोगी, मौनं पदमुपस्थितः । साम्यं प्राप्तः प्रेष्यप्रेष्यं, वन्दमानो न लज्जते ॥३०॥ ३०. मौनपद ( श्रामण्य ) में उपस्थित होकर जो चक्रवर्ती योगी बना और समत्व को प्राप्त हुआ वह अपने से पूर्व दीक्षित अपने भृत्य के भृत्य को भी वन्दना करने में लज्जित नहीं होता । यह है आत्मसाम्य का दर्शन । साधुत्व समता की आराधना है। छोटे और बड़े के विचारों में अहं का जन्म होता है । साधक अहं से ऊपर विचरने वाला होता है। वहां छोटे और बड़े का भेद नहीं है । यह भेद कृत्रिम है । साधुत्व में मुख्यता है संयम की। दो व्यक्ति साथसाथ दीक्षित होते हैं - एक चक्रवर्ती है और दूसरा उसका नौकर । संयम की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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