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________________ २६४ : सम्बोधि ३ न पहले श्रद्धालु और न पीछे एकनाथ तीर्थयात्रा के लिए चले। अगेक लोग साथ में सम्मिलित हो गए। एक चोर ने भी अपनी इच्छा प्रकट की। एकनाथ ने स्वीकृति दे दी। लोगों ने कहा-यह चोर है। एकनाथ ने समझाया। चोर ने कहा-अब चोरी नहीं करूंगा। सब रवाना हो गए। चोरी की आदत थी। एक-दो दिन तो वह चुप रहा । फिर वह एक-दूसरे की वस्तुओं को इधर-उधर करने लगा। लोगों ने देखा, यह क्या मामला है। चीजों की चोरी नहीं होती किंतु किसी की कहीं मिलती है और किसी की कहीं। एकनाथ से शिकायत की। एक दिन सब सो गए। एकनाथ सोये-सोये देख रहे थे । समय हुआ। चोर उठा और अपना काम शुरू कर दिया। चोरी का नियम था। एकनाथ ने पूछा-'कौन है ?' उसने कहा-'मैं'।' अरे क्या करता है ?' उसने कहा-'चोरी नहीं करता, चीजें इधर-उधर करने का नियम नहीं है।' जो भीतर से नहीं बदलता उसका बाहर बदलना भी मुश्किल है। ठाकर मंगलदास तीर्थयात्रा पर गए । साथ में बहुत से व्यक्ति थे। एक कवि भी था। आदतवश वहां भी शराब आदि चलने लगा। कवि से रहा नहीं गया। उसने एक दोहा बोल दिया 'मंगलियो तीरथ गायो, करी कपट मन चोर । नौ मन पाप आगे हुँतो, सौ मन लायो और ।।' ४ पहले भी श्रद्धालु और पीछे भी ____ मुनि गजसुकुमाल श्रीकृष्ण के छोटे भाई थे। भगवान अरिष्टनेमि द्वारका नगरी में आये। भाई के साथ गजसुकुमाल भी गए। प्रवचन सुना और विरक्त हो गए। माता और भाई श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया। 'तुम सुकुमार हो, यह कांटों का पथ है।' सबको संतुष्ट कर वे भगवान के चरणों में समर्पित होकर बोले'भन्ते ! आत्मदर्शन का पथ प्रदर्शित करें।' भगवान् ने कहा-मन और इन्द्रियों को भीतर मोड़कर स्वयं को देखो। ध्यान ही इसका सहज-सरल मार्ग है । भगवान् का आदेश लेकर वे श्मशान में रात को ध्यान के लिए अकेले आ पहुंचे और ध्यानस्थ हो गए। सोमिल नामक ब्राह्मण को पता चला कि गजसुकुमाल मुनि हो गए। मेरी लड़की से अब विवाह संबन्ध नहीं होगा। वह दुःखी हुआ, उद्विग्न हो गया। वह श्मशान में आया, ध्यानस्थ मुनि को देखा और क्रोध में पागल हो गया। उसने गीली मिट्टी से सिर पर पाल बांध कर श्मशान के अंगारे मुनि के सिर पर रख दिये। सिर जलने लगा। मुनि शांत रहे और स्वयं को देखते रहे। न किसी पर राग और न किसी पर द्वेष । शांत, मौन, समतायुक्त वे मुनि उसी रात्रि में निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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