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नहीं होगी ।
(३) करुणा भावना – करुणा मैत्री का प्रयोग है । जिसका सब जगत् मित्र है, उसकी करुणा भी जागतिक हो जाती है। उस करुणा का सम्बन्ध पर सापेक्ष नहीं होता । वह भीतर का एक बहाव है जो प्रतिपल सरिता की धारा की तरह प्रवाहित रहता है । महावीर, बुद्ध, जीसस आदि संत इसके अनन्यतम उदाहरण हैं । महायान बौद्ध कहते हैं - बुद्ध का निर्वाण हुआ । वे निर्वाण के द्वार पर रुक गये । कहा - भीतर आओ । बुद्ध कहते हैं - जब तक समस्त प्राणी दुःख से मुक्त नहीं होते तब तक मैं भीतर कैसे आ सकता हूं ? प्रेम का हृदय - सागर जब छल-छला जाता है, तब करुणा की ऊर्मियां तट पर टकराने लगती हैं। जितने भी संत बोले हैं, वे सब प्रेम मंत्री के मूर्त रुप थे और वह प्रेम करुणा के माध्यम से वाणी के द्वारा बाहर बहा है ।
अमेरीकन विचारक हेनरी थारो से एक व्यक्ति मिलने के लिये आया । हाथ मिलाया और तत्क्षण हेनरी ने हाथ छोड़ दिया। कहा- यह हाथ जीवन्त नहीं है, मृत है। इसमें प्रेम, करुणा, सौहार्द्र, सहानुभूति नहीं है । यह उदात्त प्रेम की सूचना है । करुणा, सौहार्द्र आदि गुण मनुष्य की आन्तरिक चेतना की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
अध्याय १२ : २७१
हजरत उमर ने एक व्यक्ति को किसी प्रान्त का गवर्नर नियुक्त किया । नियुक्ति पत्र लिखा और आवश्यक सूचना दी। इतने में एक छोटा बच्चा आ गया | हजरत उसे प्रेम करने लगे। उसने कहा, 'मेरे दस बच्चे हैं, किन्तु मैंने इतना प्रेम और इस प्रकार आलाप संलाप कभी नहीं किया ।' हजरत ने वह नियुक्त-पत्र वापिस लेकर फाड़ते हुए कहा- -'जब तुम अपने बच्चों से भी प्रेम नहीं कर सकते, तब प्रजा से प्रेम की आशा में कैसे करूं ?
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एक संत के पास एक व्यक्ति संन्यासी बनने आया । संत ने पूछा- 'क्या तुम किसी से प्रेम करते हो ?' उसने कहा ... 'आप क्या बात कर रहे हैं ? मेरा किसी से प्रेम नहीं है ।' संत ने कहा - ' तब मुश्किल है । प्रेम अगर हो तो उसे व्यापक बनाया जा सकता है, किन्तु है ही नहीं, तब मैं क्या करूं ?' प्रेम, करुणा, सहानुभूति
अन्तस्तल के सूचना - संस्थान हैं । दुःखी, पीड़ित, त्रस्त व्यक्ति को देखकर जो करुणा का भाव जागृत होता है वह यह सूचना देता है कि आपका चित्त कोमल, मृदु ओम प्रेम से शून्य नहीं है । उसी करुणा को आत्मा से जोड़ना है, दुःख के कारणों को मिटाना है, जिससे अनन्त करुणा का जन्म हो सके ।
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(४) उपेक्षा भावना--- अनुकूल और प्रतिकूल - दोनों ही स्थितियों में सर्वत्र सम रहना 'उपेक्षा' है । साधक को न पदार्थों से जुड़ना है और न बिछुड़ना है । पदार्थ पदार्थ है । उसमें राग-द्वेष नहीं है । राग द्वेष है अपने भीतर । जब आदमी किसी से जुड़ता है तो राग और बिछुड़ता या घृणा करता है तो द्वेष आता है । साधक
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