SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १२ : २५१ यथाशक्ति सेवा करना 'वैयावृत्त्य' है। वाचना प्रच्छन्ना चैव, तथैव परिवर्तना । अनुप्रेक्षा धर्मकथा, स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत् ॥३२॥ ३२. स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है : १. वाचना-पढ़ना। २. प्रच्छना-पूछना । ३. परिवर्तना—कण्ठस्थ किए हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करना। ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ-चिन्तन करना। ५. धर्म-कथा करना-प्रवचन करना। स्वाध्याय और ध्यान परमात्म-प्रकाशन के अनन्यतम अंग हैं। ध्यान जैसे योग का एक अंग है वैसे स्वाध्याय भी। स्वाध्याय ध्यान का प्रवेश-द्वार है। साधक स्वाध्याय से स्वयं की यथार्थता स्वीकार कर लेता है, तब ध्यान में प्रवेश के योग्य हो जाता है। जब तक स्वयं के रूप की स्वीकृति नहीं होती और न यथार्थ बोध होता है तब तक उसका परमात्मा की दिशा में दौड़ना सार्थक नहीं होता। इसलिए स्वाध्याय को सबने स्वीकृत किया है। कहा है "स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् । स्वाध्याय-ध्यानयोगेन, परमात्मा प्रकाशते ।। -~-योगी स्वाध्याय से विरत हो जाने पर ध्यान का अभ्यास करे और ध्यान से विरत हो जाने पर स्वाध्याय का अवलम्वन ले। स्वाध्याय और ध्यान की संपदा से परमात्मा प्रकाशित होता है। स्वाध्याय के जिस भाव से आज हम परिचित हैं, संभवतः आगमकालीन परंपरा से पूर्व वैसा भाव नहीं था। आगमों की रचना और उनके स्थिरीकरण के समय स्वाध्याय का नया अर्थ प्रचलित हो गया। किन्तु इसके साथ-साथ मूल हार्द हाथ से छूट गया। अब स्वाध्याय की शास्त्र-ग्रन्थ पठन-पाठन की परंपरा तो रही है किन्तु जहां जीवन परिवर्तन का प्रश्न था, उसमें अंतर नहीं आया। व्यक्ति शास्त्र-स्वाध्याय कर स्वयं में एक तृप्ति अनुभव करने लगा कि मैंने दैनंदिन कार्य का निर्वाह कर लिया। लेकिन स्वाध्याय तप की भावना पूर्ण नहीं हुई। उससे कोई ताप नहीं पहुंचा। स्वाध्याय तप है, ताप है, तो निःसन्देह ताप से कर्मों को पिघलना चाहिए। कालान्तर में स्वाध्याय का रूप और भी शिथिल होता चला गया । आगम-मौलिक ग्रन्थों का वाचन छूटकर इधर-उधर की चीजें कंठस्थ कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy