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________________ अध्याय १२ : २४७ इन्द्रिय, मन और शरीर की अपेक्षाओं की पूर्ति में वह होता तो आज तर्क हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता । यह यात्रा सत्य की विरोधी है । सत्य के लिए तो पुनः स्वभाव की ओर चलना होगा । मैंने जो कुछ कहा है, वह सत्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए कहा है। तुम देखो, लोग अर्थार्जन, परिवार आदि के लिए कितने कष्ट उठाते हैं । संयम की यात्रा में यदि कोई समर्पित होकर इससे आधा भी कष्ट उठाले तो मंजिल तक पहुंचा जा सकता है । लोग भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, यातना और मृत्यु तक की पीड़ा झेल लेते हैं, तब फिर यह क्या है ? नासमझ लोगों ने धर्म को घोर दुःखमय कह दिया । धर्म में शरीर को सताने या न सताने का कोई प्रश्न ही नहीं है । वह तो सिर्फ आवरण को हटाने के लिए है । आवरण की क्षीणता का स्थूल परिणाम शरीर पर दिखाई देता है । इसलिए सामान्य जन उसे सताना या पीड़ा देना समझ लेते हैं । गौण को मुख्य मान लेते हैं और मुख्य को गौण । मेरा प्रतिपाद्य अहिंसा है और वह सम्यग् विवेक के बिना परिलक्षित नहीं होती । मैंने उसे ही तप कहा है - जो अज्ञानपूर्ण क्रियाओं से दूर हो, जिसमें चित्त क्षुब्ध न हो, विचार क्लेशपूर्ण न हों और ध्यान आर्त न हो । अब तुम स्वयं सोचो - यह कैसे घोर होगा ? व्यक्ति अपनी शक्ति को तोलकर इस मार्ग में नियोजित होता है । जो अज्ञानपूर्वक तप स्वीकार करते हैं, वे धर्म के गौरव को संवद्धित नहीं करते, यह दोष उनका है । मैंने धर्म की यात्रा का प्रथम चरण निर्दिष्ट किया है— विवेक । जहां विवेक है वहां धर्म के विकास की संभावना है ।' 1 चेतना विषयासक्ता, हिंसां समनुधावति । आत्मानं प्रति संहृत्य, तामहिंसापदं नयेत् ॥१६॥ १६. जो चेतना विषयों में आसक्त है, वह हिंसा की ओर दौड़ती है | इसलिए साधक उस चेतना को आत्मा की ओर मोड़कर उसे अहिंसा में प्रतिष्ठित करे । सति देहे सेन्द्रियेस्मिन् सति चेतसि चञ्चले । इन्द्रियार्थाः प्रकृत्येष्टाः, नेष्टं तेषां विसर्जनम् ॥ १७॥ १७. जब तक शरीर और इन्द्रियां हैं, जब तक चित्त चंचल है, तब तक स्वभावतः इन्द्रियों के विषय अच्छे लगते हैं उनका परित्याग अच्छा नहीं लगता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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