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________________ २४६ : सम्बोधि धर्म दुःख का नाश करता है। फिर उस धर्म में दुःख के लिए स्थान क्यों ? बाह्य तप का विवरण सुन मेघ का मन कंपित हो उठा। उसने कहा'भगवन् ! आपने अत्यन्त कठोर धर्म का प्रतिपादन किया है। यह सब के लिए कैसे संभव हो सकता है ?' भगवान् ने उसका समाधान दिया। वह १४-२६ श्लोक में प्रस्तुत है। भगवान् प्राह वत्स ! न ज्ञातवान् मर्म, मम धर्मस्य किञ्चन । अमर्मवेदिनो लोकाः, सत्यं घ्नन्ति सनातनम् ॥१४॥ १४. वत्स ! तूने मेरे धर्म का कुछ भी मर्म नहीं समझा । जो पुरुष मर्म को नहीं जानते, वे सनातन सत्य की हत्या कर देते हैं। न धर्मो देहदःखार्थ-मसौ सत्योपलब्धये। न च सत्योपलब्धिः स्याद्, अहिंसाभ्यासमन्तरा॥१५॥ १५. धर्म शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं किन्तु वह सत्य की उपलब्धि के लिए है। अहिंसा का अभ्यास किए बिना सत्य की उपलब्धि नहीं होती। धर्म आत्म-स्वभाव के प्रगटीकरण का माध्यम है। शरीर, इन्द्रियां और मन ये आत्मा के विपरीत दिशागामी हैं। जब भी कोई धर्म की यात्रा पर अभिनिष्क्रमण करता है तब ये सहायक नहीं होते, और दूसरे लोगों को दृष्टि में भी यह यात्रा सुखद प्रतीत नहीं होती। क्योंकि लोग चलते हैं इन्द्रियों की तरफ और धार्मिक चलता है इनके विपरीत। मेघ को महावीर का यह मार्ग-दर्शन बड़ा अटपटा और दुर्धष भी लगा। उसने विनम्र निवेदन किया-'प्रभो! आनंद की इस यात्रा में यह दुःख-कष्टमय जीवन क्यों?' महावीर ने कहा- 'वत्स ! यह समझ का अन्तर है। मैंने धर्म का प्रतिपादन सत्य के साक्षात्कार के लिए किया है। सत्य की उपलब्धि विषयाभिमुखता में कैसे होगी ? सत्य-दर्शन के लिए तो हमें सत्य पथ का अनुसरण करना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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