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२२६ : सम्बोधि
"संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। नो विणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ।'
महावीर का संदेश है—सम्बोधि को प्राप्त करो। सम्बोधि के लिए ही जीवन उपयोगी है। आगे ऐसा अवसर दुर्लभ है। बीती हुई रात्रियां [क्षण] पुनः लौटकर नहीं आती और न यह मनुष्य जीवन भी पुनः सुलभ है।
केनोपनिषद् सम्बोधि की भांति 'परब्रह्म' को जानने का आग्रह करता है। वह कहता है
"इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति, न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः । भूतेषु-भूतेषु विचित्य धीराः, प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ।
..."इस मनुष्य जीवन में ही यदि परमात्मा को जान लिया तो बहुत अच्छा है । यदि नहीं जाना तो महान् विनाश है। धीर व्यक्ति प्राणी मात्र में परमात्मा को जानकर अमर हो जाते हैं, इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेते।"
सम्बोधि जैन दर्शन का प्रिय शब्द है और इस पुस्तक का नाम भी सम्बोधि' है। सम्बोधि को सुनना ही नहीं है किन्तु जीवन में घटित करना है। जैसे मेघ के जीवन में वह घटी, वैसे ही हम सबके जीवन में वह घटित हो सकती है । दुःख से मुक्ति के लिए यह अनिवार्य है। “आरुग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्त मंदितु-मुझे आरोग्य, बोधि-लाभ और समाधि की प्राप्ति हो। यह एक विशुद्ध प्रार्थना है, जिसके पीछे कोई भौतिक चाह नहीं है। जिस प्रार्थना में भौतिक मांग हो, वह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचाती। यह तो स्वभाव उपलब्धि की मांग है। साधक अपनी दुर्बलता स्वीकार करता है कि यह मेरे वश की बात नहीं है। आपका सहारा हो तो यह संभव है। वह छोड़ देता है उस अदृश्य शक्ति के हाथों में स्वयं को।
सम्बोधि स्वभाव है। वह व्यक्ति से दूर नहीं है। उसका न होना ही आश्चर्यजनक है, होना कोई आश्चर्यजनक नही। स्वभाव कभी अपने केन्द्र से पृथक् नहीं होता । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये सभी सम्बोधि के ही रूप हैं। इसलिए कहा है--धीर पुरुष अन्त से चलते हैं। धीर का अर्थ है-जो बुद्धि से सुशोभित है, जिसकी बुद्धि सत्य-शोध की ओर अभिमुख है। बुद्धि यदि यथार्थ गवेषणा में प्रवृत्त न हो तो वह यथार्थ में धीर या बुद्धिमान नहीं है। 'बुद्धेः फलं तत्वविचारणा च' बुद्धि की उपादेयता सत्य की खोज में है। 'धीरा अन्तेन गच्छन्ति' बुद्धिमान् साधक का समग्र व्यवहार अपूर्व ढंग का होता है। वह अब वैसा आचरण, व्यवहार नहीं करता, जैसा अतीत में करता था। 'अन्त' का अर्थ है-आगे वैसा जीवन नही जीना। जीवन के समस्त पापों का अन्त जागकर ही किया जा सकता है।
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