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२०८ : सम्बोधि
संस्कार (कर्म) उखड़ते हैं किन्तु वह उन्हें सहारा नहीं देती, उनके साथ प्रवाहित नहीं होती। शनैः-शनैः संस्कारो का पथ उखड़ जाता है और आत्मा अपने मूलरूप में विराजमान हो जाती है । यही पूर्ण स्वातन्त्र्य है ।।
अध्रुवे नाम संसारे, दुःखानां काममालये।
परिभ्राम्यन्नयं प्राणी, क्लेशान् वजत्यकितान् ॥२॥ २. यह संसार क्षणिक दुःखों का आलय (घर) है। इसमें परिभ्रमण करता हुआ प्राणी अतकित क्लेशों को प्राप्त होता है ।
संसार दुःख है । बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा-'भिक्षुओ ! दुःख है, इसका अनुभव करो।'
महावीर का स्वर भी यही था।
महावीर और बुद्ध दु:खी नहीं थे, जिस अर्थ में सामान्य मानव है। किन्तु दुःख की वास्तविकता उनके पास थी। उन्होंने देखा-उत्पन्न होना दुःख है, फिर मरना दुःख है। उत्पत्ति और मृत्यु के मध्य बुढ़ापा, रोग, शोक, प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग ये भी दुःख हैं । दुःख का कारण है और उसके नाश का उपाय है । वे दुःख से कतराए नहीं, किंतु जागे और दुःखोच्छेद के लिए कटिबद्ध हो गए। दुःख है-यह सामान्य व्यक्ति का भी अनुभव है, किंतु जागरण नहीं है। दुःख सुख में बदल जाएगा, इसी आशा से मानव घसीटा चला जा रहा है। लेकिन आशा कभी सफल नहीं हुई। न पहले किसी की हुई है और न होगी । जो सुख आता हुआ दिखाई दे रहा है, जैसे ही आया, फिर विषाद का क्रम शुरू हो जाता है। धर्म वह खोज है जिससे आदमी सदा-सदा के लिए दुःख से मुक्त हो जाए। वह बाहर सुख की खोज नहीं करता। बाहर तो जन्मों-जन्मों में देखते आए हैं, उससे तो सुखः मिला नहीं। इसलिए अब भीतर की यात्रा शुरू करता है। - पुनर्भवी स्ववृत्तेन, विचित्रं धरते वपुः ।
कृत्वा नानाविधं कर्म, नानागोत्रासु जातिषु ॥३॥ ३. जीव अपने आचरण से बार-बार जन्म लेता है और विचित्र प्रकार के शरीरों को धारण करता है तथा विभिन्न प्रकार के कर्मों का उपार्जन कर विभिन्न गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न होता है।
शरीर के आधार पर जीवों के छह भेद किए गए हैं । वे ये हैं : १ पृथ्वी है काय जिनकी, वे पृथ्वीकायिक जीव ।
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