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आमुख
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- आत्मा चेतन द्रव्य है । वह स्वतन्त्र है। जड़ से उसका अस्तित्व पृथक् है । जड़ से - संपृक्त होते हुए भी वह जड़ नहीं है । चेतना का पूर्ण अभ्युदय होने पर आत्मा का जड़ से सम्बन्ध - ध-विच्छेद हो जाता है। जड़ ( विजातीय) द्रव्य की विद्यमानता में आत्मा का संचरण होता रहता है । आत्मा की विविध अवस्थाओं का हेतु है कर्म और उसकी तज्जन्य चेष्टाएं । कर्म और कर्म की प्रतिक्रिया का स्वरूप अधिगत हो जाने पर व्यक्ति कर्म की चेष्टाओं पर अनुशासन कर सकता है । वह कर्म-प्रवाह को रोककर अकर्मा हो जाता है । अकर्म के लिए संसार नहीं है । कर्म का प्रवाह संसार है ।
आत्मा को स्वभाव की ओर किस प्रकार प्रेरित किया जा सकता है और वह विभाव से कैसे मुक्त हो सकती है, इसका विवेक इस अध्याय में दिया गया है ।
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