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________________ अध्याय १० : १६७ दूसरे प्रकार के व्यक्तियों को वे कहते हैं-बाल-पंडित । ये ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें विवेक भी है और अज्ञान भी है। ये पूर्णतया सोये भी नहीं हैं और पूर्णतया मगे भी नहीं हैं। इनके जीवन में जागरण और निद्रा दोनों चल रहे हैं, कुछ जागते हैं और कुछ सोते हैं। जागरण शुरू तो हो जाता है किंतु उसका पूर्ण विकास नहीं होता। इस दशा में ममत्व, आसक्ति, राग, द्वेष, मोह, क्लेश आदि वृत्तियां उठती हैं, गिरती हैं । इसलिए इस अवस्था का नाम धर्म-अधर्म पक्ष, बाल-पंडित रखा है। तीसरा पक्ष स्पष्ट है। यहां चेतना अकुशल वृत्तियों से हटकर कुशल में प्रविष्ट हो जाती है। साधक अंतर्जीवन के सघन-सागर में निमग्न रहता है । आत्मस्मृति से प्रतिक्षण जुड़ा रहता है । संतों ने इस स्मरण को ही सार कहा है कबिरां सुमिरन सार है, और सकल जंजाल। आदि अन्त मध्य सुमिरन, बाकी है भ्रम जाल । यह यात्रा धर्म की है, अनासक्ति की है और सजगता की है। इसलिए इसे धर्म-पक्ष, 'पंडित' कहा है। हव्यवाहः प्रमथ्नाति, जीणं काष्ठं यथाध्रुवम् । तथा कर्म प्रमथ्नाति, मुनिरात्मसमाहितः ॥२५॥ २५. जिस प्रकार अग्नि जीर्ण काठ को भस्म कर डालती है उसी प्रकार समाधियुक्त आत्मा वाला मुनि कर्मों को भस्म कर डालता है। 'जं अण्णाणी कम्म, खवेई बहयावि वाससयसहस्सेहि। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेई उच्छासमत्तेण ।' अज्ञानी को जिन कर्मों के क्षय करने में लाखों वर्ष लगते हैं, वहां मनोवाक्काय से संयमित ज्ञानी उन कर्मों को श्वास मात्र में क्षय कर देता है । इससे संयम--संवर या निवृत्ति की महत्ता स्पष्ट अभिलक्षित होती है। महत्त्व क्रिया का नहीं है। महत्त्व है संयमयुक्त क्रिया का। यह सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के हृदय-पटल पर अंकित रहना चाहिए । योगों (मन, वचन, काय) से संयम (गुप्ति) के अभाव में कष्ट बहुत उठाया जाता है, किंतु सार बहुत कम निकलता है। समग्र साधनापद्धति प्रवृत्तियों के संयमन की है। आत्मशासित साधक वह होता है जो बाहर से सर्वथा संयमित होकर आत्म-ध्यान में प्रतिष्ठित हो गया है, जिसने पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान की यात्रा का अंत कर रूपातीत की यात्रा शुरू कर दी है, जिसके ध्यान के लिए अब बाहर के विषय-अवलंबन छूट चुके हैं। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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