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________________ १९४ : सम्बोधि १८. मृत्यु के दो प्रकार हैं - सकाम मृत्यु - संयममय मृत्यु और अकाम मृत्यु -- असंयममय मृत्यु । सकाम मृत्यु श्रेय है । अकाम मृत्यु श्रेय नहीं है । जीवन से मरना भला, जो मर जाने कोय | मरना पहिले जो मरे, अजर-अमर सो होय || कबीर ने कहा है— मरना अच्छा है अगर किसी को मरने की कला आ गई हो तो । और मृत्यु की कला यही है कि मरने से भी पहिले व्यक्ति मृत्यु को देख ले । बस, मृत्यु खत्म हो गयी । महर्षि रमण के सम्पूर्ण जीवन का क्रान्ति-सूत्र मृत्यु दर्शन ही है । एक बार वे छोटी उम्र में मरणासन्न हो गए। बचने की आशा नहीं थी । लेट गए और देखने लगे । शरीर मृतवत् - निश्चेष्ट हो गया। हाथ पैर उठाने पर भी हिलते डुलते, उठते नही । शान्त स्थिति में शरीर को देखते रहे । देखते-देखते यह देख लिया कि शरीर मर चुका है। किन्तु देखने वाला (द्रष्टा ) अब भी जोवित है मौत व्यर्थ हो गई । अजर-अमर की अनुभूति हो गई । यहां न जीवन का मूल्य है और न मृत्यु का । दोनों अनेकों बार हो चुके, किंतु मृत्यु का समुचित निरीक्षण नहीं किया, मृत्यु को जाना नहीं । जीवन का पता भी मृत्यु को जान लेने के बाद चलता है। सभी धर्म उस परम सत्य के साक्षात्कार की विधि हैं । वे मानव के मूल रूप की अभिव्यक्ति के आलम्बन हैं । बुद्ध कहते हैं'जब तक तुम्हें खयाल है कि तुम हो, तब तक तुम्हारा भय नहीं मिट सकता । यदि भय से मुक्त होना चाहते हो तो तुम पहले ही मान लो कि तुम हो ही नहीं । तुम इस तरह जीओ कि जैसे हो ही नहीं। जिस क्षण यह अनुभव हो जाएगा, भय नहीं रहेगा ।' महावीर ने इस अनुभूति के लिए कायोत्सर्ग प्रतिमा दी है । कायोत्सर्ग का अर्थ है - देह के प्रति जो अनुराग है, उससे निवृत्त होना । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- काय आदि पर - द्रव्यों में स्थिरत्व की बुद्धि को छोड़कर जो निर्विकल्प रूप से आत्मा का ध्यान करता है वह कायोत्सर्ग में स्थित है । देह का बार-बार विसर्जन कर मृतवत् हो सत्य का साक्षात्कार करना ही कायोत्सर्ग प्रतिमा है । 'स्यूयून' साधक ने किसी से पूछा- - ध्यान क्या है ? स्यूयून ने कहा — ध्यान मिटा देने में है, स्वयं को मिटा देने में है । यदि तुम भी मुर्दे की भांति स्वयं को जीवित ही मिटा दो तो तुम ध्यान में हो ।' बनयान की कविता का पद है 1 'जीते जी मृतवत् हो जाओ, पूर्णतया मृतवत् हो जाओ । और तब जो जी में आए करो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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