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________________ अध्याय १० : १६१ लिया। जिसे आत्मा में रस की अनुभूति हो गई, वही पुरुष रस (स्वाद) को जीत सकता है। न दामाद् हनुतस्तावत्संचारयेच्च दक्षिणम् । दक्षिणाच्च तथा वाममाहरन्मुनिरात्मवित् ॥१३॥ १३. आत्मविद् मुनि भोजन करते समय स्वाद लेने के लिए दाएं जबड़े से बायीं ओर तथा बाएं जबड़े से दायीं ओर भोजन का संचार न करे। स्वादाय विविधान् योगान्, न कुर्यात् खाद्यवस्तुषु । संयोजनां परित्यज्य, मुनिराहारमाचरेत् ॥१४॥ १४. मुनि स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों में विविध प्रकार के संयोग न मिलाए। इस संयोजना-दोष का वर्जन कर भोजन करे । १२-१४. स्वाद-विजय परम-विजय है। जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय पर विजय पा लेता है, उसके लिए अन्यान्य इन्द्रियों पर विजय पाना इतना कठिन नहीं होता। भूख को शांत करने के लिए व्यक्ति खाता है। भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट और अस्वादिष्ट भी होते हैं। जीभ का काम है-चखना । पदार्थ का स्पर्श पाकर जीभ जान लेती है कि यह स्वादिष्ट है या नहीं। इसे रोका नहीं जा सकता। प्रत्येक इन्द्रिय अपनी-अपनी मर्यादा में विषय का ज्ञान कराती है। उसे रोका नहीं जा सकता । किन्तु इन्द्रिय-विषयों के प्रति होने वाली आसक्ति से बचा जा सकता है। यही साधना है। इसी प्रकार स्वाद में आसक्त होने से बचना स्वाद-विजय है। इसके दो मुख्य उपाय हैं : १. भोजन करने के लक्ष्य का स्पष्ट अनुचिन्तन । २. समता का अभ्यास । ये दोनों उपाय साधक को आत्माभिमुख करते हैं। जब उसे आत्मरस का स्वाद आने लगता है तब पौद्गलिक रस से उसका मन हट जाता है। गीता में भी कहा है विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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