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अध्याय १० : १८६
आत्मिक सुख में प्रवृत्त । उसे शरीर से मोह नहीं होता । वह शरीर निर्वाह के लिए भोजन करता है, न कि स्वाद के लिए । शरीर-पोषण का जहां ध्येय होता है ari मोक्ष गौण हो जाता है । और जहां शरीर मोक्ष के लिए होता है वहां सारी क्रियाएं मोक्षोचित हो जाती हैं ।
इस श्लोक में शरीर धारण या निर्वाह का एक मुख्य कारण बताया है । और वह है कर्म - क्षय । कर्म-क्षय के अनेक हेतु हैं । देहधारी व्यक्ति ही धर्म-व्यवहार: कर सकता है । इसी का समर्थन अगले श्लोक में किया गया है ।
विनाहारं न देहोऽसो, न धर्मो देहमन्तरा । निर्वाहं तेन देहस्य, कर्तुमाहार इष्यते ॥७॥
७. भोजन के बिना शरीर नहीं टिकता और शरीर के बिना धर्म नहीं होता । इसलिए शरीर का निर्वाह करने के लिए साधक भोजन करे, यह इष्ट है ।
क्षुधः शान्त्यै च सेवाये, प्राणसन्धारणाय च । संयमाय धर्मं चिन्तायें मुनिराहरेत् ॥ ८ ॥
तथा
८.
मुनि भूख को शान्त करने के लिए, दूसरे साधुओं की सेवा करने के लिए, प्राणों को धारण करने के लिए, संयम की सुरक्षा के लिए, तथा धर्म - चिन्तन कर सके वैसी शक्ति बनाए रखने के लिए: भोजन करे ।
आतङ्क निष्प्रतीकारे, जातायां विरतौ तनौ । ब्रह्मचर्यस्य रक्षायै, दयायै प्राणिनां तथा ॥ ६ ॥
संकल्पान् सुदृढीकतुं कर्मणां शोधनाय च । आहारस्य परित्यागः, कर्तुमर्हति संयतिः ॥१०॥
६- १०. असाध्य रोग उत्पन्न हो जाये, शरीर से विरक्ति हो जाए - वैसी स्थिति में, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, जीव-हिंसा से बचने के लिए, संकल्पों को सुदृढ़ करने के लिए और कृत-कर्म की शुद्धि - प्रायश्चित्त के लिए मुनि को भोजन का परित्याग करना: उचित है।
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