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अध्याय ६ : १७६
अज्ञानी क्या करेगा? वह श्रेयस् और पापक को कैसे जानेगा? धर्महीन व्यक्ति न वर्तमान को सुखी बना सकता है और न अनागत को। ४. दूसरों को धर्म में प्रेरित करना-ज्ञानी व्यक्ति ही विभिन्न व्यक्तियों को
समझाकर धर्म में स्थापित कर सकते हैं। जो स्वय आचारवान् नहीं होता वह दूसरों को आचार में स्थापित नहीं कर
सकता। शिक्षा-प्राप्ति के इन उद्देश्यों से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। एकांगी विकास उपादेय नहीं हो सकता।
प्राणिनामुह्यमानानां, जरामरणवेगतः ।
धर्मो द्वीपं प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥१६॥ १६. जरा और मरण के प्रवाह में बहने वाले जीवों के लिए धर्म द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है।
'वत्थु सभावो धम्मो' वस्तु का स्वभाव-स्वरूप धर्म है। स्वभाव व्यक्ति को कभी नहीं छोड़ता। मनुष्य स्वभाव को विस्मृत कर सकता है, किंतु स्वभाव मनुष्य को नहीं। उसके अतिरिक्त त्राण, शरण, गति और द्वीप क्या हो सकता है ? विभाव कभी शरण नहीं बनता । मनुष्य यह जानता हुआ भी स्वभाव की ओर गति नहीं करता। धर्म की शरण में आओ 'धम्म सरणं गच्छामि' 'धम्म सरणं पवज्जामि' 'मामेकं सरणं व्रज'-यह उद्घोष समस्त धर्म प्रवर्तकों द्वारा हुआ है। उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि धर्म को छोड़ कर ही प्राणी अनेक आपदाएं वरण करता है । शान्ति का आधार धर्म है, इसलिए यहां कहा है कि स्वभाव का अनुसंधान करो। ___ जरा और मृत्यु के महा प्रवाह में बहते हुए प्राणियों की रक्षा का आधार-स्तंभ यही है । उत्पन्न होना, जीर्ण होना और समाप्त होना-एक भी वस्तु इस नियम से वंचित नहीं है। परिवर्तन का चक्र सब पर चलता है। धर्म अपरिवर्तनीय है, शाश्वतिक है। यही परिवर्तन के चक्रव्यूह से व्यक्ति को मुक्त कर सकता है ।
दुर्गतौ प्रपतज्जन्तोर्धारणाद् धर्म उच्यते । धर्मेणासौ धृतो ह्यात्मा, स्वरूपमधिगच्छति ॥२०॥ २०. जो दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण करता है वह धर्म
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