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१७८ : सम्बोधि
को प्राप्त नहीं कर सकता।
लप्स्ये चित्तस्य सुस्थैर्य-मध्येतव्यमतो मया।
अस्थिरात्मा पदार्थेषु, जानन्नपि विमुह्यति ॥१६॥ १६. मैं एकाग्र चित्त बनूंगा-इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए । अस्थिर आत्मा वाला व्यक्ति पदार्थों को जानता हुआ भी उनमें मूढ़ बन जाता है।
आत्मानं स्थापयिष्यामि, धर्मेऽध्येयमतो मया। धर्महीनो जनो लोके, तनुते दुःखसन्ततिम् ॥१७॥ १७. अपनी आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा-इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। जो व्यक्ति धर्महीन है वह संसार में दुःख की परम्परा को बढ़ाता है।
स्थितः परान् स्थापयिष्ये, धर्मेऽध्येयमतो मया।
आचार्येव सदाचार, प्रस्थापयितुमर्हति ॥१८॥ १८. मैं स्वयं स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थापित करूंगा-इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। आचारवान् व्यक्ति ही सदाचार की स्थापना कर सकता है।
इन श्लोकों में शिक्षा क्यों' का सुन्दर समाधान दिया गया है। आज की शिक्षा का उद्देश्य है विषय का ज्ञान बौद्धिक विकास ।
प्राचीन काल में शिक्षा के चार मुख्य उद्देश्य थे : १. ज्ञान-प्राप्ति-इससे बौद्धिक विकास के साथ-साथ सत्-असत् का विवेक
भी जागृत होता है। २. मानसिक एकाग्रता- इससे लक्ष्य-प्राप्ति की ओर सहज गति करने की
क्षमता बढ़ती है, अपने आप पर नियंत्रण और धैर्य का
विकास होता है। ३. धर्माचरण-ज्ञान की प्राप्ति श्रेय के प्रति प्रस्थान के लिए सहज-सरल
मार्ग प्रस्तुत करती है । आगमों में कहा है'अन्नाणी किं काही, किंवा नाहीइ छयपावगं'
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