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________________ मेघः प्राह fक बन्धः किञ्च मोक्षस्तौ, जायेते कथमात्मनाम् । तदहं श्रोतुमिच्छामि, सर्वदशिस्तवान्तिके ॥ १ ॥ बन्ध-मोक्ष-वाद १. मेघ बोला- हे सर्वदर्शिन् ! बन्ध किसे कहते हैं, मोक्ष किसे कहते हैं, आत्मा का बन्धन कैसे होता है और मुक्ति कैसे होती हैयह मैं सुनना चाहता हूं । भगवान् प्राह पुद्गलानां स्वीकरणं, बन्धो जीवस्य भण्यते । अस्वीकारः प्रक्षयो वा तेषां मोक्षो भवेद् ध्रुवम् ॥ २ ॥ २. भगवान् ने कहा – आत्मा के द्वारा पुद्गलों का जो ग्रहण होता है वह बन्ध कहलाता है । जिस अवस्था में पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता और गृहीत पुद्गलों का क्षय हो जाता है, उस स्थिति का नाम मोक्ष है । प्रवृत्या बद्धयते जीवो, निवृत्त्या च विमुच्यते । प्रवृत्तिर्बन्धहेतुः स्यान्निवृत्तिर्मोक्षकारणम् ॥ ३॥ ३. प्रवृत्ति के द्वारा वह कर्मों से आबद्ध होता है और निवृत्ति के द्वारा वह कर्मों से मुक्त होता है । प्रवृत्ति बन्ध का हेतु है और निवृत्ति मोक्ष का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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