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१५२ : सम्बोधि
अनैतिकता का मुख्य हेतु है अर्थ-लिप्पा। भीष्म पितामह ने इसी कटु सत्य को यों सामने रखा है-हे युधिष्टर ! तुम्हारा कहना अनुचित नहीं है कि आप धर्म को छोड़ अधर्म की ओर क्यों चले गए। मैं बताऊं तुम्हें, मनुष्य अर्थ का दास है, किंतु अर्थ किसी का दास नहीं है । अर्थ के प्रलोभन ने ही मुझे कौरवों का पक्षपाती बना दिया। परिग्रह अनर्थ की धुरा है। मानसिक मलिनता को परिग्रह में आसक्त व्यक्ति छोड़ नहीं सकता। सच्चाई यह है कि पवित्रता, स्थैर्य, शुद्धि और धैर्य का निवास अपरिग्रह में है । असंतुष्ट व्यक्ति बार-बार उत्पन्न होता है और मरता है, भले फिर वह इन्द्र भी क्यों न हो।
सुख आवश्यकताओं को बढ़ाने में नहीं। मनुष्य जितना स्व-सीमा में रहता है उतना ही वह सुखी और शांत रहता है। सीमा का अतिक्रमण अशांति को उत्पन्न करता है। परिग्रह स्व नहीं, पर है । वह सहायक है, किंतु सर्वेसर्वा नहीं। वह शरीर की भूख है न कि आत्म-चेतना की। इस विवेक पर चलने वाला उससे चिपका नहीं रहता। न वह शोषण करता है और न अनावश्यक संग्रह । महाभारत में कहा
भ्रियते यावज्जठर, तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दंडमर्हति ॥ -जितना पेट भरने के लिए आवश्यक होता है, वही व्यक्ति का अपना हैव्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए। जो इससे ज्यादा संग्रह करता है वह चोर है, दंड का भागी है।
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