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१२८ : सम्बोधि
है। अनेक लोग हैं और उनकी जीवन-पद्धतियां-संस्कार भी पृथक्-पृथक् हैं । सत्य क्या है ? अनेक लोगों से यह अविज्ञात है, तब फिर उसके साक्षात्कार की कल्पना तो कर ही नहीं सकते। आगम कहते हैं-मूल स्थिति उनके लिए पुनः शक्य है-जो सरल, विनम्र शान्त और निश्छल व्यवहार युक्त हैं । मूल-स्थिति से उत्थान का क्रम है-इन्द्रियों और मन का प्रत्याहार करना । उनका बहिर्गामी दौड़ को अन्तर्गामी बनाना। मन को बिना एकाग्र किए और उसके स्वरूप से परिचित हुए बिना उस का नियमन कठिनतम है । संयत मन और संयत इंद्रियां आत्मदर्शन का द्वार उद्घाटित करती हैं। इनके द्वारा क्रमश: आरोहण के सोपानों का अतिक्रमण करता हुए व्यक्ति उच्च, उच्चतर और उच्चतम अवस्थिति को पा लेता है। गृहवास क्लेशजनक
दुःखावह इहामुत्र, धनादीनां परिग्रहः । मुमुक्षुः स्वं दिदृक्षुश्च, को विद्वानगारमावसेत् ॥२४॥ २४. धन आदि पदार्थों का संग्रह इहलोक और परलोक में दुःखदायी होता है। अतः मुक्त होने की इच्छा रखने वाला और आत्म-साक्षात्कार की भावना रखने वाला कौन ऐसा विद्वान् व्यक्ति होगा जो घर में रहे ?
__गृह-जीवन क्लेशों से भरा है और संयम जीवन क्लेशों से मुक्त है। मनुष्य शांतिप्रिय है किन्तु वह शांति का दर्शन संयम में न करके असंयम में करता है। असंयम शान्ति का द्वार नहीं, अशांति का द्वार है। जो शांतिप्रिय है उसे संयमप्रिय होना चाहिए । वस्तुतः जिसे शांति प्रिय है वह धन, पुत्र आदि में उसे नहीं देखता ।। वह उनसे संपृक्त रहता हुआ भी धायमाता की तरह उन्हें अपना नहीं मानता।
प्रमाद
प्रमादं कर्म तत्राहुरप्रमादं तथापरम् ।
तदभावाद् देशतस्तच्च, बालं पण्डितमेव वा ॥२५॥
२५. प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म। प्रमादयुक्त प्रवृत्ति बंध का और अप्रमत्तता मुक्ति का हेतु है । प्रमाद और अप्रमाद के
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