SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदह) ० वह केवल 'है', वह है केवल 'अस्ति '। • महाप्रज्ञ ने कहा-हम जो पाना चाहते हैं, वह हमारे पास है। बाहर से हमें ___ कुछ भी नहीं लेना है । हमें खाली हो जाना है। .. 'संबोधि' का संगान खाली होना सिखाता है, विजातीय का उच्छेद सिखाता • खाली होते ही सत्ता अनावृत हो जाती है। वह अनन्त है। वह अनिर्वचनीय .. 'संबोधि' सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का दिशा-बोध है। वह गति भी है और गन्तव्य भी है । वह साधन भी है और सिद्धि भी है। वह पूर्णता भी है और रिक्तता भी है। ० “संबोधि" अप्रतिबद्ध होती है । जो अप्रतिबद्ध है वही अनन्त है। ० यह शब्द और वाद के उस पार की स्थिति है जहां सारे शब्द निःसार और __ वाद निष्प्राण हो जाते हैं । यह अशब्द और अवाद है इसलिए अनन्त है। .० महाप्रज्ञ स्वयं संबुद्ध हैं। उन्होंने संबोधि को स्वयं जीया है और आज भी जी रहे हैं। कहते हैं-महावीर को जानना है तो महावीर बनकर जानो। महावीर जैसे चलते थे वैसे चलो, जैसे बैठते थे वैसे बैठो, जैसे बोलते थे वैसे बोलो, जैसे खाते थे वैसे खाओ, जैसे सोते थे वैसे सोओ; जैसे ध्यान करते थे वैसे ध्यान करो; ऐसा करना ही महावीर को जानना है। ऐसा करना ही महावीर बनना है। यही ऊर्ध्वारोहण है, चेतना का साक्षात्करण है। मैंने यत्-किंचित् प्रयास किया और महावीर बनने की दिशा स्पष्ट हो गई। ० महाप्रज्ञ ने यह रहस्योद्घाटन किया महावीर की इस जन्म जयन्ती के ___ अवसर पर। • मैंने भी यही समझा है। यही एकमात्र कार्य है हमारे करणीय। जो इस दिशा __ में प्रस्थित है मैं उसे शत-शत प्रणाम करता हूं। • “संबोधि" को व्याख्यायित करना सरल है, पर उसका जीना कठिन है। कठिन तब तक जब तक उसको जीया न जाए। हम उसे जीने लगें तो वह सहज-सरल हो जाती है, यह मेरा अपना अनुभव है। ० इस 'संबोधि' के संगान से व्यक्ति-व्यक्ति के हृदय की धुंडी खुलेगी और तब उस आध्यात्मिक संगीत के सरगम से संबोधि कल्पायित नहीं, जीवन्त बनकर जीवन को अनवरत आनन्द में निमग्न कर देगी। अणुव्रत विहार दिल्ली १-८-८१ --मुनि शुभकरण -मुनि दुलहराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy