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अध्याय ५ : ६५
नानाविधानि कष्टानि, प्रसन्नात्मा सहेत यः। परानपीडयन् सोऽयमहिंसां वेत्ति नापरः ॥४॥
४. जो दूसरों को कष्ट न पहुंचाता हुआ प्रसन्नतापूर्वक नाना प्रकार के कष्टों को सहन करता है वही व्यक्ति अहिंसा को जानता है, दूसरा नहीं।
अपि शात्रवमापन्नान, मनुते सुहृदः प्रियान् । अपि कष्टप्रदायिभ्यो, न च द्धन्मनागपि ॥५॥
५. अहिंसक अपने से शत्रुता रखनेवालों को प्रिय मित्र मानता है और कष्ट देनेवालों पर तनिक भी ऋद्ध नहीं होता । .
अप्रियेषुः पदार्थेषु, द्वषं कुर्यान्न किञ्चन । प्रियेषु च पदार्थेषु, रागभावं न चोद्वहेत् ॥६॥
६. वह अप्रिय पदार्थों में न किच्चित् द्वेष करता है और न अप्रिय पदार्थों में अनुरक्त होता है।
अप्रियां सहते वाणी, सहते कर्म चाप्रियम्।
प्रियाप्रिये निविशेषः, समदृष्टिरहिंसकः ॥७॥ ७. वह अप्रिय वचन को सहन करता है और अप्रिय प्रवृत्ति को भी सहन करता है। जी प्रिय और अप्रिय में समान रहता है वह समदृष्टि होता है । जो समदृष्टि होता है, वही अहिंसक है ।
भयं नास्त्यप्रमत्तस्य, स एव स्यादहिंसकः। अहिंसायाश्च भीतेश्च, दिगप्येका न विद्यते॥८॥
७. अप्रमत्त को भय नहीं होता और जो अप्रमत्त होता है वही
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