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________________ अध्याय ४ : ७६ उत्तरित होकर भी अनुत्तरित हैं। आगे भी बुद्धि उनका उत्तर खोज सके यह सम्भव नहीं है। क्योंकि बुद्धि की अपनी सीमा है । असीम के सामने बुद्धि निरुत्तर हो जाती है। उसके लिए सिर्फ अनुभूति पर्याप्त है। मोक्ष आत्मा की विशुद्ध दशा है; विभाव की विमुक्ति और स्वभाव की प्राप्ति आत्म-रमणता है। वहां शरीर, मोह, राग, द्वेष, मद, विस्मय, पीड़ा, भौतिक सुख-दुःख, जन्म-मरण आदि क्लेशों का सर्वथा अन्त है तथा मन, वाणी और इन्द्रियों का अभाव है । मेघ का मन इसलिए सशंक है कि सुख-दुःखात्मक अनुभूति के साधन हैं--मन, वाणी और इन्द्रियां । निर्वाण में इनका अभाव है। व्यक्ति बिना किसी माध्यम के सुखानुभव कैसे कर सकता है ? ऊपर से यह तर्क असंगत भी नहीं लगता। बहुत से व्यक्तियों की यह धारणा भी है कि मोक्ष में है क्या? हम क्यों उसके लिए प्रयत्नशील रहें ? कौन आनन्द का अनुभव करता है और वह कैसा है, उसे कैसे पहचाना जाए? बर्तमान सुख प्रत्यक्ष है, अनुभूतिगम्य भी है। इसको छोड़ अप्राप्त की आकांक्षा करना मूर्खता है। भगवान् इससे उल्टे चलते हैं। वे अप्राप्त आनन्द की ओर जनता को प्रेरित कर रहे हैं। जो सूख परोक्ष या अनुभूति का विषय है, उसे प्राप्त करने की विधि बताते हैं। मेघ यही जानना चाहता है कि आखिर उसका हेतु क्या है। क्या वह सुख वास्तविक और बुद्धिगम्य है ? भगवान् प्राह" यत्सुखं कायिकं वत्स !, वाचिकं मानसं तथा। अनुभूतं तदस्माभि-रतः सुखमितीष्यते ॥६॥ ६. भगवान ने कहा-वत्स ! जो-जो कायिक, वाचिक और मानसिक सुख है उसका हमने अनुभव किया है । इसीलिए वह सुख है-ऐसा हमें प्रतीत होता है।। नानुभतश्चिदानन्द, इन्द्रियाणामगोचर । वितक्यों मनसा नापि, स्वात्म-दर्शन-संभवः ॥७॥ ७. किन्तु चिद् के आनन्द का अभी अनुभव नहीं किया है, क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है, मन की वितर्कणा से परे है । आत्मसाक्षात्कार से ही उसका प्रादुर्भाव होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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