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७८ : सम्बोधि
प्रियता उत्पन्न करती हैं । जिन्हें इन्द्रियां प्राप्त न हों उन्हें अनुभवजन्य सुख कैसे हो सकता है ?
साधनेन विहीनेस्मिन् पथि प्रेरयसि प्रजाः । किमत्र कारणं ब्रूहि, देव! जिज्ञासुरस्म्यहम् ॥५॥
५. मोक्ष का मार्ग साधन विहीन है-जहां जीवन के साधनभूत मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति को रोकने का यत्न किया जाता है । फिर आप लोगों को इस ओर चलने की प्रेरणा क्यों देते हैं ? देव ! मैं जिज्ञासु हूं | इस प्रेरणा का कारण मुझे समझाएं ।
मेघ ने सुख का एक पक्ष देखा, वह विनश्वर सुख का पक्ष था । किन्तु उस विनश्वरता से भी वह सीख नहीं सका कि सुख का एक ऐसा भी पक्ष है जो बिनश्वर नहीं है । इस सत्य की खोज में उसने चरणन्यास अवश्य किया किन्तु गहन अभीप्सा के साथ नहीं । अन्यथा वह महावीर के शब्दों में सशंकित नहीं होता । महावीर जिस आनन्द - सुख में निमज्जित हो रहे हैं, वह सुख और दुःख दोनों सापेक्ष शब्दों से भिन्न है । वे कोई तीसरे सुख की बात कर रहे हैं जो पदार्थनिरपेक्ष है । साधारणतया मनुष्य का मन तरंगों की तरह है । लहर को सागर का कभी अनुभव नहीं होता, क्योंकि वह सिर्फ आती है, जाती है, रुकती नहीं । 'इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य का मन घड़ी के 'पेंडुलम्' की भांति है ।' मन को निर्विचार करना जिसे आ जाता है, वह इस आनन्द का अनुभव कर • सकता है ।
आचार्य विनयविजय जी कहते हैं
" सकृदपि यदि समता- लवं हृदयेन लिहन्ति । विदितरसास्तत इह रति, स्वत एव वहन्ति ॥ "
जिसने सन्तुलन, समता या माध्यस्थ्य रस का हृदय से एक छोटा-सा कण भी चख लिया है, फिर वह स्वयं ही उस ओर अग्रसर होता जाएगा । उसे किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं रहेगी ।
मेघ ने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं, वे सब मन, वाणी, शरीर और कल्पना से सम्बन्धित हैं । उसके लिए यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि वह उससे 'आगे कुछ देख ही नहीं सका । ये प्रश्न मेघ के ही नहीं हैं, मेघ जैसे अनेक लोगों के हैं । यह प्रश्न- परम्परा प्राचीन ही नहीं, अर्वाचीन भी है
। आज भी ये प्रश्न
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