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________________ अध्याय : ६६ आध्यात्मिक जगत् में निकम्मा - निष्कर्मा होना महान् दुश्चर तप है । यह अपने आप में महान् सक्रियता है । योग के जितने प्रकार और जितनी विधियां हैं उनका अंतिम परिणाम निष्क्रियता --- समाधि है, जहां स्वरूप के अतिरिक्त कुछ अनुभूत नहीं होता । निष्क्रियता का पहला चरण है— मन और इन्द्रियों की सक्रियता को देखो । उन्हें रोको मत । उनके साथ मत बहो । जैसे ही गति शुरू कर दोगे, अपने को भूल जाओगे, होश खो बैठोगे । वह आप पर सवार हो जाएगा, आप उस पर नहीं । समग्र साधना का सार है - स्वयं का मालिक स्वयं होना । दूसरे चरण में सीखना है— तटस्थ होना । मन में उठने वाले अच्छे-बुरे विचारों- भावों के प्रति प्रतिक्रिया न कर तटस्थ ( राग-द्वेष मुक्त ) भाव से देखते रहना । सामान्यतया व्यक्ति तटस्थ नहीं रहता । जैसी ही इन्द्रिय विषय प्रति बिम्बित होते हैं, शब्द, कल्पना या मन का कार्य प्रारंभ हो जाता है । शान्तितटस्थता नहीं रहती । प्रतिक्रिया की मुक्ति के विना निवृत्ति संभव नहीं है । सत्प्रवृत्ति प्रकुर्वाणाः, कर्म निर्जरयत्यधम् । बध्यमानं शुभं तेन, सत्कर्मेत्यभिधीयते ॥ ३६ ॥ ३६. जो जीव सत्प्रवृत्ति करता है, उसके पाप-कर्म की निर्जरा होती है और शुभ कर्म का संग्रह होता है इसलिए वह 'सत्कर्मा' कहलाता है । शुभ विकल्प दशा में प्रवर्तमान आत्मा सत्कर्मा है । इसमें शुभ कर्म का संग्रह भी होता है । और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी होता है । कर्म का प्रवाह उसी रूप में प्रवाहित रहे तो कर्म आत्मा से पृथक् नहीं होते । कर्मों की अपृथक्ता से भव-परंपरा का भी अंत नहीं होता । लेकिन सत्प्रवृत्ति में आत्मा की अपूर्व स्थिति बनती है । वहां बद्ध कर्म पृथक् होते हैं, नए कर्मों का प्रगाढ़ बन्धन नहीं होता और न उनका लेप ही तीव्र होता है । ज्यों-ज्यों आत्मा उन्नति की ओर अग्रसर होती है त्यों-त्यों कर्म-क्षीणता अधिक होती है और संग्रह कम । इस प्रकार वह सर्वथा कर्म से छूट जाती है । शुभं नाम शुभं गोलं, शुभमायुश्च लभ्यते । वेदनीयं शुभं जीवः, शुभकर्मोदये सति ॥ ४० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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