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६८ : सम्बोधि
वहां मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है। आनन्द, ज्ञान, दर्शन और चरित्रात्मक क्रियाओं का द्वार खुल जाता है। संन्यास शब्द की भावना ही बहिर्भाव का परिवर्जन है। एक क्रिया से निवृत्त होने का अर्थ है दूसरी में प्रवृत्त होना । राग, द्वेष और मोह की निवृत्ति ही समत्व या अना सक्तता की प्रवृत्ति है। पूर्ण अनासक्ति राग-द्वेष के अभाव के बिना संभव नहीं होती। उसकी मात्रा में तारतम्य हो सकता है। अनासक्ति और मोह का मेल नहीं होता। जैन दर्शन की भाषा में वीतराग-दशा अनासक्त दशा है । वहां राग, द्वेष और मोहात्मक प्रवृत्ति नहीं होती, इसीलिए वह एकान्ततः सत्कर्म अवस्था है, अशुभ कर्म की सर्वथा निरोधात्मक स्थिति है । लेकिन सत्कर्म की क्रिया से पुण्य कर्म का बंधन वहां भी रहता है । अन्तर इतना ही है कि वह बन्धन द्वि-सामयिक होता है। सत्कर्म की निवृत्ति की स्थिति में आत्मा पूर्ण अकर्मा होती है। वहां किसी प्रकार का बन्धन नहीं रहता। उस स्थिति की क्रिया चिदात्म-स्वरूप है। उस दशा में आत्मा शरीर से सदा विमुक्त हो जाती है।
पूर्ण या अपूर्ण निष्क्रियता के बिना कर्म का प्रवाह विच्छिन्न नहीं होता। कर्म-निरोध के लिए सबसे पहले अशुद्ध भावों का निरोध होना चाहिए। अशुभ की निवृत्ति, शुभ की प्रवृत्ति-उससे पाप कर्म का बंधन नहीं होता। जितना भी दुःख है वह सब अशुभ भावों का है। महात्मा बुद्ध की दृष्टि में दुःखों जी जनयित्री तृष्णा है। तृष्णा का उच्छेद दुःख का उच्छेद है। तृष्णा अशुभ संकल्पों को पैदा करती है । अशुभ संकल्प से कर्म का प्रवेश होता है और कर्म से दुःख । इस प्रकार ग्रन्थिभेद नहीं होता। ___अशुभ प्रवृत्तियों के अनन्तर शुभ प्रवृत्तियों का निरोध अपेक्षित है। उसका साधन है ध्यान । स्व-द्रव्य (चैतन्य) के अतिरिक्त 'पर' का स्पर्श नहीं करना ध्यान है। इसमें आत्मा के सिवाय और कुछ प्रतिभासित नहीं होता । कर्म-क्षय की यह उच्चतम अवस्था है। इसमें शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों की प्रबल मात्रा में क्षीणता होती है। कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर आत्मा स्वभावस्थ हो जाती है। वह पूर्ण निष्कर्मा बन जाती है। ____ लाओत्से कहता है-जो निष्क्रिय है उसे तुम सक्रियता के द्वारा कैसे पा सकोगे ? सक्रियता सिर्फ थकाती है, जिससे कि व्यक्ति विश्राम में चला जाए। अन्ततोगत्वा व्यक्ति को अकर्म होना पड़ता है। वह कहता है-'कुछ मत करो, रुक जाओ।' जो खोजेगा वह खो देगा। अगर पाना है तो पाने की कोशिश मत करो, और जो भीतर ही है उससे पाने के लिए रुक जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।" लेकिन सामान्यतया यह बात प्राथमिक साधक के हृदय में नहीं उतरती। वह 'न करने' की कल्पना भी नहीं कर सकता। मनुष्य का संस्कार कुछ न कुछ करने का है। निकम्मा रहना व्यावहारिक जगत् नहीं सिखाता।
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