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प्रस्तुति
यह स्याद्वाद ही तो है कि कोई नया ही नहीं होता और कोई पुराना ही नहीं होता। एक समय आता है, पुराना नया बन जाता है और एक समय आता है, नया पुराना बन जाता है। यह ग्रंथ न नया है और न पुराना। पुराना इसलिए नहीं है कि इसकी भाषा अर्धमागधी नहीं है, भगवान् की भाषा में नहीं है । नया इसलिए नहीं है कि भावना और तत्त्वज्ञान मेरा अपना नहीं है। जो भगवान ने कहा, उसी का अनुवाद है। पुष्पों की सुरभि में मालाकार का क्या होता है ? उसके लिए इतना भी बहुत है कि वह उसका चयन करे और एक धागे में गंथ दे । आचार्यश्री तुलसी ने मुझे प्रोत्साहित किया और मैं सहसा मालाकार बनने को चल पड़ा।
मालाकार का कार्य सर्वथा मौलिक नहीं है तो सर्वथा सहज भी नहीं है। योजना निर्माण से कम कठिन नहीं होती। उचित स्थान और समय पर योजित करने की दृष्टि सूक्ष्म चाहिए, पैनी चाहिए। मैं अपनी दृष्टि को सूक्ष्म या पैनी मानूं या न मान, ये दोनों ही गौण प्रश्न हैं। प्रधान बात इतनी है कि एक निमित्त मिला और यह संकलन हो गया।
अनेक लोगों ने कहा-एक स्वाध्याय ग्रन्थ की अपेक्षा है, जो न बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा; जिसमें जीवन की व्याख्या हो, जीवन का दर्शन हो । मैं स्वयं अनुभव करता था कि जैन परम्परा के आधुनिक काल में तत्त्वज्ञान के अध्ययन की ओर जितना ध्यान है, उतना जीवन-दर्शन के प्रति नहीं है। इसका परिणाम जितना चाहिए, उतना इष्ट नहीं होता। जीवन-शोधन के लिए आग्रह नहीं होता, उस स्थिति में तत्त्वज्ञान का आग्रह कहीं-कहीं दुराग्रह का रूप ले लेता है। अनाग्रह स्याद्वाद का मूल मंत्र है, पर जीवन-शोधन के बिना वह विकसित नहीं होता। विकार जो है, वह सब मोह की परिणति है। दृष्टिमोह से दर्शन विकृत होता है और चारित्र-मोह से आचार विकृत होता है। दृष्टि का विकार बना रहे, उस स्थिति में तत्त्वज्ञान आए तो क्या और न आए तो क्या ? इसलिए भगवान ने कहा- 'दृष्टि सम्यक् हो (मोह क्षीण हो) तो ज्ञान सम्यक् होता है, दृष्टि सम्यक नहीं होती (मोह क्षीण नहीं होता) तो ज्ञान भी सम्यक् नहीं होता। फलित की भाषा यह है कि ज्ञान के आलोक में दृष्टि सम्यक नहीं होती, दृष्टि के
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