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मत नहीं हैं । कुछ विचारकों का मत है - प्रकृति के प्रकोप को शान्त करने की विधियां हमारे पास हैं । इसलिए पर्यावरण प्रदूषण की विभीषिका विकास की यात्रा में बाधा नहीं बन सकती ।
कुछ विचारकों का मत है - प्रकृति के नियमों की हमें पूरी जानकारी नहीं है इसलिए उसके साथ अधिक छेड़छाड़ करना मानवीय एवं प्राणी मात्र के अस्तित्व के लिए खतरनाक है
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कुछ विचारकों का मत है- हम आदम युग में लौटने की बात न सोचें किन्तु आर्थिक विकास और उपभोग का संयम कर एक संतुलित जीवनशैली को विकसित करें ।
यह मध्यम मार्ग है । अणुव्रत का चिन्तन इसके परिपार्श्व में चल रहा
है
कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ?
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समस्या का कारण
आज हिंसा को रोकने के बहुत उपाय किए जा रहे हैं। दंड संहिता का विस्तार हो गया है, पुलिस की संख्या बढ़ गई है। सतर्कता विभाग बन गए हैं। पुलिस की शाखाएं बढ़ती जा रही हैं। पहले एक आई. जी. था । आज अनेक आई.जी. बना दिए गए। अनेक नगरों में पुलिस का जाल-सा बिछा हुआ रहता है, फिर भी अपराध बढ़ता जा रहा है, उपाय बेअसर हो रहे हैं । इसका कारण है-जिस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए, उस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ध्यान दिए जाने योग्य बात है असंयम ।
आज मनुष्य में असंयम बढ़ रहा है। मैं एक युवक से बातचीत कर रहा था । उसने कहा - ईगो (EGO) तो होना ही चाहिए । ईगो नहीं होगा तो विकास कैसे होगा ? महत्त्वाकांक्षा के बिना विकास कैसे हो सकता है? इसलिए ईगो का होना जरूरी है। मैंने कहा- ईगो का होना जरूरी है । साथ-साथ सुपर ईगो ( SUPER EGO ) का होना भी जरूरी है। यदि सुपर ईगो नहीं होगा तो कोरा ईगो खतरनाक बन जाएगा। ईगो और सुपर ईगो का सन्तुलन जरूरी है। अगर ईगो को हम असंयम मानें तो सुपर ईगों को संयम माना जा सकता है। ईगो असंयम है तो सुपर ईगो संयम है। अगर ईगो के साथ सुपर ईगो नहीं है तो हिंसा का होना अनिवार्य है ।
आज असंयम के कारण समस्याएं बढ़ रही हैं । इसी असंयम को ध्यान में रखकर महावीर ने कहा था - हिंसा मृत्यु है । इसका हार्द है - जब-जब असंयम बढ़ता है, हिंसा की समस्या विकराल बन जाती है । वह मनुष्य के लिए मौत बन जाती है । हिंसा मृत्यु कैसे हुई ? इस तथ्य को हम विज्ञान के
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