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पर्यावरण
जीवनशैली प्रकृति के साथ जीने का आधार नहीं देती। केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण के आधार पर निर्मित जीवनशैली जीवनयात्रा के लिए पर्याप्त नहीं होती । जीवनशैली की सर्वांगीण बनाने के लिए नए दर्शन की जरूरत है। उसके आधार पर आर्थिक विकास, भौतिक विकास और आध्यात्मिक विकास की सामंजस्यपूर्ण प्रणाली निर्धारित की जा सकती है। उसमें बौद्धिक विकास और भावात्मक विकास के संतुलन की उपेक्षा नहीं की जा सकती । सुख की अवधारणा
जब तक इन्द्रियजन्य सुख-संवेदना के आधार पर चलने वाली जीवनशैली होगी तब तक हम प्रकृति के साथ जीने की बात संगोष्ठियों एवं संभाषणों में भले ही करें, यथार्थ के धरातल को वह प्रभावित नहीं कर पाएगी । इन्द्रिय चेतना के स्तर से ऊपर उठकर चिन्तन करने का अर्थ होगा - सुख की अवधारणा में परिवर्तन । अध्यात्म के आचार्यों ने कहा - इन्द्रियजन्य सुख वास्तविक सुख नहीं है । जिसका परिणाम सुखद नहीं होता, वह सुख वस्तुतः दुःख ही होता है । इस प्रसंग में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डेविड ब्रूम के विचार बहुत मननीय हैं
Indeed many scientists have noted that the validity of their sudden flashes of insight tends to be in inverse proportion to the amount of pleasure to which they give rise (and thetefore to the intensity of the conficition that they are true)... so it may seems in this way that there is often a true perception at a deeper level, that can not be translated into thinking. So that what is perceived is distorted and lost*.
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सत्य के अंतर्दर्शन में जो सुख की अनुभूति होती है, वह बाह्य पदार्थों के अनुभव से होने वाले सुख से सर्वथा भिन्न है । अनुभूति के गहन स्तर पर जो सत्य का दर्शन होता है, उसका बुद्धि के स्तर पर अनुवाद नहीं किया जा सकता। अनुवाद करने का प्रयत्न करेंगे तो वह विकृत और तिरोहित हो जाएगा ।
मध्यम मार्ग
प्रकृति के साथ होने वाले व्यवहार में सब वैज्ञानिक और विचारक एक
* डेविड ब्रूम अनपब्लिश्ड मेटेरियल - “द मूवमेन्ट ऑफ दी माइन्ड बियोन्ड थिंकिंग एण्ड फीलिंग "
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