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________________ स्वस्थ समाज रचना 75 कायोत्सर्ग देहाध्यास को मिटाने की महत्त्वपूर्ण साधना है। इससे विवेक चेतना का जागरण होता है। विवेक चेतना-शरीर अलग है, मैं अलग हूं। जब शरीर के साथ भी ममकार नहीं रहा तो फिर अन्य पदार्थ के साथ भी ममकार नहीं रहेगा। सारे ममकार का जनक है शरीर। शरीर के प्रति जितनी गहरी मूर्छा होती है, उतनी गहरी मूर्छा पदार्थों के साथ भी होती चली जाती है। जिस व्यक्ति का अपने शरीर के प्रति ममत्व छूट गया, जिसने चैतन्य का शरीर से पृथक अनुभव कर लिया, वह कभी शरीर के प्रति मूच्र्छावान नहीं हो सकता। जब देहाध्यास प्रबल होता है, देहासक्ति का प्राबल्य होता है तब शरीर के प्रति मूर्छा जागती है और भौतिक अस्तित्व के प्रति आसक्ति जाग जाती है। तब उसके सामने केवल भौतिक अस्तित्व दृश्य होता है, वह दूसरों की बात को देख ही नहीं पाता। कायोत्सर्ग का प्रयोग चैतन्य के जागरण का प्रयोग है। पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक प्रत्येक अवयव के प्रति जाग जाना, शरीर के प्रति जागृत हो जाना, शरीर की प्रकृति को समझ लेना, शरीर की सचाइयों को जान लेना-यह सारी फलश्रुति है कायोत्सर्ग की। जो व्यक्ति इतना जागरूक हो जाता है, वह साक्षात्कार की भूमिका में चला जाता है। आत्मा और परमात्मा के साक्षात्कार से पहले हम अपने व्यक्तित्व का साक्षात्कार करें। यह जान लें कि हमारा व्यक्तित्व क्या है? किन-किन तत्वों से बना है? इसका साक्षात्कार होता है कायोत्सर्ग के द्वारा। पुराने जमाने की बात है। सम्राट के मन में स्वर्ग और नरक का साक्षात्कार करने की इच्छा उत्पन्न हुई। उस इच्छा को पूरी करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गया। अनेक व्यक्तियों से मिला पर स्वर्ग और नरक का साक्षात्कार कराने वाला कोई नहीं मिला। एक बार नगर में एक संन्यासी आया। लोगों में चर्चा हुई। उसकी शक्ति-सम्पन्नता की बात सम्राट् तक पहुंची। सम्राट वहां गया, उसने प्रार्थना की-'महाराज! स्वर्ग और नरक का साक्षात्कार कराएं।' संन्यासी बोला'राजन् ! साक्षात्कार करके क्या करोगे? अच्छा नहीं है स्वर्ग और नरक का साक्षात्कार करना। भूल जाओ इस बात को।' सम्राट् ने आग्रह किया। संन्यासी ने कहा-बैठ जाओ यहां। कुछ क्षण तक ध्यान करो! ध्यान किया। संन्यासी ने कहा-'अरे, सम्राट! कितना भद्दा है तुम्हारा चेहरा। यदि कोई अंधेरे में देख ले तो भूत समझकर डर जाए। अरे, मुँह पर मक्खियां भनभना रही हैं, लार टपक रही है। तुम सफाई करना भी नहीं जानते। किसने बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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