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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
वाला भी झूठ पाल रहा है। दोनों झूठ पालते हैं इसलिए काम बनता है। आदमी बेईमानी को छिपाना चाहता है, बुराई करना चाहता है और तब करता है, जब झूठ का सहारा मिल जाए।
आध्यात्मिक व्यक्तित्व में चिन्तन की धारा बदल जाती है। वह कभी गलत काम करना ही नहीं चाहता। उसे झूठ के सहारे की कभी जरूरत ही नहीं होती। झूठ का सहारा तब चाहिए जब कोई गलत काम को संभालना हो या उसे पालना हो। जो व्यक्ति यथार्थ की भूमिका पर ही काम करता है, वह सोचता है-काम बने या न बने, मुझे झूठ का सहारा कभी नहीं लेना है। झूठ के सहारे जो काम बनता है, वह काम भी झूठा ही होता है।
आज की सबसे विकट समस्या है-भौतिक व्यक्तित्व का विकास। हम इसे पदार्थ विकास के साथ न जोड़ें। पदार्थ का विकास होना भौतिक व्यक्तित्व का विकास नहीं है। पदार्थ का विकास आध्यात्मिक व्यक्ति भी कर सकता है क्योंकि पदार्द एक अपेक्षा है, आवश्यकता है। आज का आदमी पदार्थ से इतना जुड़ गया कि उसका दृष्टिकोण पदार्थपरक बन गया।
ध्यान और धर्म की निष्पति यह है कि पदार्थ और चेतना के बीच की रेखा स्पष्ट ज्ञात रहे। जब पदार्थ और चेतना के भेद की रेखा विस्मृत हो जाती है तब सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। हमारा यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से निष्पन्न हो कि पदार्थ पदार्थ है, चेतना चेतना है। दोनों के बीच में एक भेदरेखा है।
साधक कायोत्सर्ग करते हैं। क्या वे इसलिए करते हैं कि विश्राम मिल जाए, रक्तचाप कम हो जाए, शरीर की क्रियाएं संतुलित हो जाएं? यदि इन्हीं कारणों से किया है तो उन्होंने शवासन किया है, कायोत्सर्ग नहीं। शवासन का अर्थ है-मुर्दे का आसन । जब उस आसन में चेतना नहीं है तो वह शवासन ही है। कायोत्सर्ग शवासन नहीं है, वह उससे भिन्न है। कायोत्सर्ग में चेतना का आभास होता है, शरीर छूटता है। काया का उत्सर्ग करने वाला चेतन बच जाता है। एक में चेतन बचता है और दूसरे में शरीर बचता है। दोनों शब्द. यही स्पष्ट ध्वनित करते हैं, दोनों शब्दों का अपना गहरा अर्थ है। कायोत्सर्ग में जो जाता है वह चेतन है, द्रष्टा है, वह काया को छोड़ता है। दोनों के बीच में एक रेखा है। तुम अलग हो, मैं अलग हूं। हम दोनों साथ-साथ जी रहे हैं, किन्तु कायोत्सर्ग में मैं इस सचाई का अनुभव कर रहा हूं कि तुम तुम हो, मैं मैं हूं। यदि इस सचाई का अनुभव नहीं होगा तो कायोत्सर्ग नहीं होगा, कोरा शवासन होगा।
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