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________________ स्वस्थ समाज रचना नहीं जाता। एक जाति में भी इतनी अवान्तर जातियां हैं कि आदमी उनके नीचे दबा पड़ा है, उसका पता ही नहीं है। दूसरा तत्त्व है ममकार । यह भी बांटता है आदमी को। ममकार का अर्थ है-मेरा। जिसके साथ 'मेरा' शब्द जुड़ गया, वह भिन्न वस्तु हो गई और जिसके साथ 'तेरा' शब्द जुड़ गया, वह भिन्न वस्तु हो गई। आदमी भी अलग हो गया। 'मेरा बेटा'-बेटा अलग हो गया, मेरा अलग हो गया। वह भी बंट गया। मेरा घर और तेरा घर-एक दीवार खिंच गई। दो सगे भाई भी जब 'मेरे' 'मेरे' में रहते हैं तो बीच में दीवार खिंच जाती है। अहंकार ने व्यक्ति को बाँटा है। ममकार ने भी व्यक्ति को बाँटा है। इस प्रकार भौतिक व्यक्तित्व का अर्थ होता है व्यक्तियों को तोड़ना, बाँटना। आध्यात्मिक व्यक्ति तोड़ता नहीं, जोड़ता है। वहां तोड़ने वाला कोई तत्त्व नहीं होता। इसी सच्चाई को प्रकट करने के लिए यह घोषणा की गई थी-एक्का मणुस्सजाई-मनुष्य जाति एक है। भौतिक व्यक्ति के मुंह से यह शब्द कभी उच्चरित नहीं हो सकता। जिस मंच से यह घोषणा हुई, वह आध्यात्मिक मंच था। वहां व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेद का अनुभव नहीं किया गया। आध्यात्मिक व्यक्तित्व में पदार्थ का भोग होगा। आध्यात्मिक व्यक्तित्व खाएगा, पीएगा, कपड़े भी पहननेगा, मकान में भी रहेगा। यह सब कुछ करेगा पर वह यह कभी नहीं कहेगा-मेरा कपड़ा, मेरा मकान। वह कहेगा-इस मकान में मैं अभी रह रहा हूं। यह कपड़ा मेरे पहनने के काम आ रहा है। गाँवों में जब लोगों से पूछते हैं-यह मकान तुम्हारा है? घर का मालिक कहता है-'मकान किसका। भगवान का है महाराज, मैं तो यहां रहता हूं। इस कथन के पीछे एक सिद्धान्त है, ममत्व नहीं है। मकान किसका हो सकता है? किसी का नहीं हो सकता। यह सचाई है-आज तक भी यह संपदा और भूमि शाश्वत कन्याएं हैं, कुँआरी कन्याएं हैं। आज तक इनका पाणिग्रहण नहीं हुआ, विवाह नहीं हुआ। सम्पत्ति शाश्वत कुँआरी है। अनन्त काल बीत जाने पर भी वह वैसी ही है और वैसी ही रहेगी। पदार्थ का भोग करना और पदार्थ के साथ ममत्व जोड़ना-ये दो भिन्न बातें हैं। सब जानते हैं कि मेरा कुछ भी नहीं है, फिर भी काल्पनिक रेखाएं खींची जाती हैं और हर किसी को 'मेरा' मान लिया जाता है। मेरा कुछ होता ही नहीं। सारा धोखा होता है। जब आदमी ठगा जाता है तब भान होता है कि जो मेरा नहीं था, उसे मेरा मानकर बहुत बड़ी भूल की। सारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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