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________________ स्वस्थ समाज रचना 69 बढ़ जाती है । यह सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाली बहुत बड़ी समस्या है I 5. प्रामाणिकता सत्य - सत्य का एक अर्थ है प्रामाणिकता । समाज का अर्थ है - व्यवहार । दस-बीस आदमियों का एकत्रित हो जाना ही समाज नहीं है। समाज का तात्पर्य होता है- लेन-देन, विनिमय, व्यवहार । समाज की यही परिभाषा है । हजार आदमी हों या हजार पशु हों, वह समाज नहीं कहलाता। जहां परस्पर विनिमय होता है, व्यवहार होता है, वह समाज कहलाता है । संस्कृत में दो शब्द हैं-समाज और समज । जहां व्यवहार होता है वह है समाज और जहां व्यवहार की कोई गुंजाइश ही नहीं होती, वह है समज । पशुओं का समाज नहीं होता। उनका समूह समज कहलाता है । आदमियों का समूह समाज कहलाता है, क्योंकि वहां विनिमय है । आज अनैतिक, क्रूर और जटिल व्यवहार के कारण समाज में हजारों समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। सामाजिक मूल्यों का विकास इसलिए नहीं हो रहा है कि आदमी में प्रामाणिकता नहीं है । एक समय था जब भारतवासी प्रामाणिकता के लिए विश्रुत थे। उस समय यहां घी दूध की नदियां बहती थीं । चोरी-डकैती का नामोनिशान नहीं था। बड़े से बड़ा राज्याधिकारी प्रामाणिकता से कार्य करता था । महामात्य चाणक्य मगध सम्राट का सर्वेसर्वा था। जब वह राज्य का कार्य करता तब राज्य का दीपक जलाता और जब वह अपना व्यक्तिगत कार्य करता तब अपने घर का दीया जलाता। कितनी प्रामाणिकता ! आज भी कुछेक राज्याधिकारी ऐसे हैं जो सरकारी काम में सरकार की मोटर का उपयोग करते हैं और अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य में व्यक्तिगत मोटर अथवा बस आदि का उपयोग करते हैं । यह है प्रामाणिक व्यवहार । प्रामाणिक व्यवहार जीवन का आधार है । इससे व्यक्तित्व निखरता है । जीवन-विज्ञान की शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी को प्रामाणिक जीवन जीने की कला सिखाई जाती है । यदि सत्य के ये पांचों अर्थ विद्यार्थी के जीवन में समाविष्ट होते हैं तो वह विद्यार्थी राष्ट्र का उन्नत नागरिक बन सकता है और उसका व्यक्तित्व समाज के लिए दीप-स्तम्भ बन सकता है 1 यथार्थवादी दृष्टिकोण और ध्यान युग की एक अपेक्षा है आध्यात्मिक व्यक्तित्व का निर्माण । यह केवल युगीन अपेक्षा ही नहीं है, समाज की शाश्वत अपेक्षा है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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