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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ?
पर चलना है, उसे स्नेहपूर्ण और मृदुतापूर्ण बनाना है तो ऋजुता को प्रश्रय देना ही होगा, छलना, प्रवंचना, संदेह और अविश्वास के भूत को भगाना ही होगा । अन्यथा व्यक्ति-व्यक्ति के दुराव को हम मिटा नहीं पाएंगे। दो व्यक्ति पास-पास बैठे हैं, पर उनके मन की दूरी हजारों मील की है। दो व्यक्ति हजारों मील दूर हैं, पर उनका मन निकट है, समीप है । मन की दूरी का कारण है संदेह और छिपाव | मन की निकटता का कारण है ऋजुता और स्पष्टता । प्रत्येक व्यक्ति में अऋजुता का भाव है । यह उसकी दुर्बलता है। वह इस कमजोरी के कारण स्वार्थ और मोहवश अनेक बुराइयों में फंसता है । उसकी यह कमजोरी छूटती नहीं क्योंकि छिपाव में उसका तीव्र रस है ।
4. अविसंवादिता सत्य-सत्य का एक अर्थ है- अविसंवादिता अर्थात् कथनी और करनी की समानता । सामाजिक जीवन के साथ इसका बहुत बड़ा सम्बन्ध है । इससे समाज प्रभावी बनता है ।
जब तक व्यक्ति में राग-द्वेष है, प्रियता-अप्रियता का द्वन्द्व है, तब तक कथनी और करनी, ज्ञान और आचरण की दूरी मिट नहीं सकती। इनमें अविसंवादिता आ नहीं सकती । कथनी और करनी की विसंवादिता को मिटाना ऊँचे शिखर पर आरोह करने जैसा कार्य है ।
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जैन परम्परा में वीतराग और अवीतराग की सात कसौटियां हैं। उनमें एक है विसंवादन | जिसमें विसंवादन होता है, कथनी और करनी में समानता नहीं होती, वह है अवीतराग और जिसमें कथनी और करनी की समानता होती है, अविसंवादन होता है, वह है वीतराग । राग-ग्रस्त व्यक्ति जैसा कहता है वैसा करता नहीं । यह उसका लक्षण है । पर मात्रा में तरतमता होती है यह एक मान्य तथ्य है कि इस ज्ञान और आचरण की दूरी को पूर्णतः मिटाया नहीं जा सकता, किन्तु कम किया जा सकता है ।
राजनीति के क्षेत्र में यह दूरी चिन्ता का विषय नहीं है, क्योंकि वह क्षेत्र कूटनीति का है और उसकी बुनियाद इसी दूरी पर आधृत है। सामाजिक क्षेत्र में यह दूरी कुछ समस्या पैदा करती है। वहां भी वह चलती है, पलती है । यह आश्चर्य की बात नहीं है । किन्तु आश्चर्य तब होता है जब आत्मा और चैतन्य के प्रति जागृत व्यक्ति भी उस दूरी को पालता है, बढ़ाता है । इसका स्पष्ट हेतु है कि व्यक्ति ने अहंकार और ममकार से अभी छुटकारा नहीं पाया है । ये दो हेतु उस दूरी के कारण हैं ।
ममत्व विकट समस्याएं पैदा करता है। इसके कारण आदमी का सिद्धान्त और आचरण अलग-थलग जा पड़ते हैं, कथनी और करनी की दूरी
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