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प्रश्न है परिष्कार का
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आज के विद्यालयों में बौद्धिक विकास पर्याप्त मात्रा में कराया जाता है और शारीरिक विकास के लिए भी छुटपुट प्रयास चलते रहते हैं। किन्तु मानसिक विकास और भावनात्मक विकास के लिए बहुत कम संभावनाएं रहती हैं। इन दोनों का विकास होना आवश्यक है। इसके विकास का मूल उपाय है-संवेगों का परिष्कार।
भय एक संवेग है। इसके कारण मनुष्य शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को भोगता है। यदि भय और चिंता का संवेग टलता है, खतरे की बात कम होती है तो बहुत सारी बीमारियां भी टल जाती हैं, मनोकायिक (साइकोसोमेटिक) बीमारियों में परिवर्तन आ जाता है। आदमी भय को छोड़ना चाहता है। भय, क्रोध आदि किसी को अच्छे नहीं लगते। बच्चा भी क्रोध करता है, पर वह जानता है कि क्रोध का परिणाम बुरा होता है। क्रोध से झंझट बढ़ता है। माता-पिता को अच्छा नहीं लगता। लड़ाइयां होती हैं।
पर प्रश्न है कि क्रोध, भय आदि को कैसे मिटाएं? कैसे कम करें? ज्ञान मात्र से आचरण की दूरी नहीं मिटती। इसके लिए अभ्यास जरूरी है। अभ्यास के द्वारा ग्रन्थियों का जागरण, चैतन्य केन्द्रों का जागरण बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमें वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इन पहलुओं पर विचार करना होगा। आध्यात्मिक दृष्टि यह है कि जिस व्यक्ति का तृतीय नेत्र जागृत होता है, वह अपने भावों पर कन्ट्रोल कर सकता है। तीसरे नेत्र का उद्घाटन और हृदय-परिवर्तन-ये दो माध्यम हैं संवेगों को परिष्कृत करने के लिए। __ हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। जिस व्यक्ति का पीनियल ग्लैण्ड सक्रिय होता है, वह अपने संवेगों पर नियंत्रण कर सकता है अथवा हाइपोथेलेमस, जो भाव-संवेदन का केन्द्र है, उसको नियंत्रित करने पर संवेगों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। इस बिन्दु पर दोनों दृष्टियांआध्यात्मिक और वैज्ञानिक-लगभग समान रेखा पर आ जाती हैं। मस्तिष्कीय परिवर्तन का प्रयोग - हृदय-परिवर्तन का अर्थ समझने में इन शताब्दियों में गड़बड़ हुई है। हृदय का अर्थ रक्त का शोधन करने वाला या रक्त को फेंकने वाला अवयव नहीं है। उसका क्या परिवर्तन किया जाए और उसके परिवर्तन से भाव परिवर्तन कैसे हो जाए? हमने इस पर बहुत विचार और मनन किया। हृदय-परिवर्तन के सन्दर्भ में हृदय का अर्थ है मस्तिष्क का वह भाग जिसे हम हाइपोथेलेमस कहते हैं। एक हृदय है धड़कने वाला, जो फेफड़ों के पास है। एक हृदय है मस्तिष्क में । हमें उसमें परिवर्तन लाना है। यही है हृदय-परिवर्तन का रहस्य।
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