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________________ प्रश्न है परिष्कार का 39 प्रभावित करते हैं। इसलिए उन पर अनुशासन करना विकासशील प्राणी के लिए बहत आवश्यक है। विद्यार्थी के जीवन में इसकी जटिल समस्या संक्रमण काल में आती है। जब दो अवस्थाओं का संधिकाल होता है तब एक खतरनाक मोड़ उपस्थित होता है। आठ-नौ वर्ष की अवस्था, ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था और सत्रह-अठारह वर्ष की अवस्था-ये दो-तीन ऐसे मोड़ हैं जहां अत्यन्त सावधानी और सजगता की जरूरत रहती है। शिशु किशोर बनता है। उसकी मांसपेशियां शक्तिशाली बनती हैं। जब मांसपेशियां शक्तिशाली बनती हैं तब शरीर में शक्ति का प्रारम्भ होता है। यह किशोरावस्था की दहलीज है। इस पर पैर रखते ही कुछ शारीरिक परिवर्तन होते हैं, क्रियाएं बदलती हैं। यौवन के बीज अंकुरित होने लगते हैं और शरीर में उभार आता है। इस अवस्था में भय, क्रोध, मान-अपमान का बोध, सत्कार और तिरस्कार की अनुभूति-ये सारे संवेग प्रबल बनते हैं। यदि इस अवस्था के संवेगों को ठीक ढंग से संभाला जाए, उन्हें अनुशासित किया जाए तो जीवन की गाड़ी पटरी पर चल सकती है। अन्यथा पटरी से नीचे उतर जाती है। ये संतुलित संवेग हमारे ग्रन्थितंत्र और नाड़ीतंत्र-दोनों को प्रभावित करते हैं। जब ये दोनों तंत्र संतुलित रहते हैं तब जीवन का क्रम उचित ढंग से चलता है। इसमें विकार होते ही जीवन गड़बड़ा जाता है। विकार का मूल कारण है-असंतुलित संवेग। ये विकारों को उत्पन्न करते हैं। एक बच्चा चिड़चिड़ा स्वभाव का है, अन्यमनस्क है। इसका कारण है-असंतुलित संवेग। इसके फलस्वरूप बालक में विचित्र प्रकार की जटिल आदतें बन जाती हैं, कामुकता का उभार अधिक हो जाता है, वह अपराध में फंस जाता है। ' आज बाल-मनोविज्ञान पर काफी कार्य हुआ है। बाल अवस्था में जो आदतें बनती हैं, उनके कारण भी खोजे गए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में यह ध्यान देना बहुत जरूरी है कि बालक की आदतें जटिल न बनें और वह विकारों में न फंसे। इसके लिए उसके संवेगों पर ध्यान देना आवश्यक है। जैसे अक्षरबोध शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जैसे भाषा और तर्क का बोध शिक्षा का एक अनिवार्य अंग है वैसे ही जीवन के निर्माण का बोध भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जैसे गणित का ज्ञान शिक्षा का एक अनिवार्य अंग है वैसे ही जीवन-निर्माण का ज्ञान भी शिक्षा का अनिवार्य अंग है। अक्षर-बोध, गणित का ज्ञान, भाषा और तर्क का बोध-ये आजीविका के साधन हैं। ये जीवन के साध्य नहीं हैं। कभी-कभी आदमी साधन को प्रथम मान लेता है और मूल को भुला बैठता है। आदमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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