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प्रश्न है परिष्कार का
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बात पर अधिक बल दिया गया कि कामना का परिष्कार करो, साधन-शुद्धि को ध्यान में रखो। महावीर ने परिग्रह की परिभाषा करते हुए कहा-मूर्छा परिग्रह है। उन्होंने यह नहीं कहा-धन परिग्रह है। मूल परिग्रह है काम, कामना। अर्थ दूसरे नम्बर में परिग्रह बनता है। कपड़ा, रोटी और मकान परिग्रह बनते हैं, पर ये मूल परिग्रह नहीं हैं। कपड़ा, रोटी और मकान परमाणु हैं, परमाणुओं के पिण्ड हैं, वे बेचारे क्या परिग्रह बनेंगे? परमाणु हमारा न कुछ बिगाड़ता है और न कुछ भला करता है। परमाणु परमाणु है। चैतन्य चैतन्य है। वह परिग्रह नहीं बनता। परिग्रह बनता है काम। कहना यह चाहिए, एक ही बात हमारे सामने दो रूपों में प्रगट होती है। यह द्वैत व्यक्तित्व है, दोहरा व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व का एक रूप है काम और दूसरा रूप है परिग्रह । जब काम का अस्तित्व रहता है तब अर्थ भी परिग्रह बन जाता है।
एक त्यागी मुनि कपड़े पहनता है, रोटी खाता है, मकान में रहता है। वह परिग्रह नहीं है। न कपड़ा परिग्रह है, न रोटी परिग्रह है और न मकान परिग्रह है। मुनि कभी-कभी राजप्रासादों में रहते हैं। बड़े-बड़े धनवानों के विशाल भवनों में आवास करते हैं। यदि मकान परिग्रह बनता तो मुनि सबसे बड़े परिग्रही होते। उनके जितना परिग्रही कोई नहीं होता, क्योंकि प्रतिदिन नए-नए मकानों में रहते हैं। वर्ष भर में न जाने कितने मकानों में रह जाते हैं, पर कहीं कोई परिग्रह नहीं छू पाता। __पूछा गया-साधक खाता है, पीता है, और भी अनेक वस्तुएं रखता है, उनका उपभोग करता है, फिर भी परिग्रह नहीं, क्यों? आचार्य ने कहा-ममत्व या मूर्छा के जुड़े बिना पदार्थ परिग्रह नहीं बनता। ममत्व परिग्रह है, केवल पदार्थ परिग्रह नहीं है।
यह एक महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सचाई है-वस्तु परिग्रह नहीं है, परिग्रह है हमारे भीतर रहा हआ काम । जब काम का परिष्कार हो जाता है, काम-शुद्धि हो जाती है तब वस्तु अपरिग्रह बन जाती है। जब तक काम अपरिष्कृत रहता है, तब तक वस्तु परिग्रह बनी रहती है। इसीलिए आचार्यों ने परिग्रह को दो भागों में बांटा-एक है भीतर का परिग्रह और दूसरा है बाहर का परिग्रह। सारी मानसिक ग्रंथियां भीतर के परिग्रह हैं। सोना, चांदी, लोहा, धन-धान्य आदि बाहर का परिग्रह है। बाहर का परिग्रह हमें नहीं बांधता। बांधता है भीतर का परिग्रह । काम भीतर का परिग्रह है। वह बांधता है।
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