SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? कंगन और ले जाओ। एक कंगन से क्या होगा?' यह है कामना का परिष्कार । जब यह घटित होता है तब व्यक्ति का मनोभाव बदल जाता है, उदारता आ जाती है। जब काम-शुद्धि घटित होती है तब साथ-साथ अर्थ-शुद्धि भी होती है। प्रथम है काम-शुद्धि आज अनैतिक आचरण को मिटाने के लिए प्रयत्न हो रहे हैं। शासन और समाज-दोनों इसमें लगे हुए हैं। दंडशक्ति को काम में लिया जा रहा है। नए-नए कानून बन रहे हैं। प्रश्न होता है-यदि काम अपरिष्कृत बना रहेगा तो अर्थ-शुद्धि घटित हो सकेगी? ऐसा होना संभव नहीं है। रोग कहीं है और दवाई किसी को दी जा रही है। बीमारी कहीं और दवा कहीं। बीमारी तो है काम-अशुद्धि की और प्रयत्न हो रहा है अर्थ-शुद्धि का। कितना विपर्यास! यह विपर्यास इसलिए चलता है कि हम सचाई का अनुभव नहीं करते, सचाई की दिशा में प्रस्थान नहीं करते। जब तक आदमी सचाई की दिशा में प्रस्थित नहीं होगा, जब तक वह धर्म की खोज में नहीं चलेगा, जब तक वह मूल भूल को नहीं पकड़ पायेगा, तब तक फूल और पत्तों को तोड़ने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। पतझड़ का होना और वसन्त का आना-यह नियति का चक्र है, स्वाभाविक क्रम है। हम मूल को पकड़ें। अर्थ-शुद्धि द्वयं है। प्रथम है काम-शुद्धि । अर्थ शुद्धि के अनेक प्रयत्न हैं। इतना नियंत्रण है, टेक्स है कि अमुक धनराशि से अधिक पास में न रखी जाए। ये अर्थ-शुद्धि के प्रयत्न, अर्थ-विभाजन के प्रयत्न, गरीबी और अमीरी को मिटाने के प्रयत्न अर्थहीन हो रहे हैं क्योंकि इनके साथ धर्म का योग नहीं है। ___ धर्म के बिना काम का परिष्कार नहीं होता और काम के परिष्कार के बिना अर्थ का परिष्कार नहीं हो सकता। केवल अर्थ-शुद्धि घटित करने का अर्थ है-हम परिणाम को मिटाना चाहते हैं, कारण को मिटाना चाहते हैं। यह एक भयंकर दार्शनिक भूल है। हम प्रवृत्ति को मिटाना नहीं चाहते, परिणाम को मिटाना चाहते हैं। हम परिणाम का शोधन करना चाहते हैं पर प्रवृत्ति के शोधन की बात नहीं सोचते। प्रवृत्ति है तो परिणाम होगा ही। केवल परिणाम का शोधन कार्यकारी नहीं हो सकता। परिग्रह है मूर्छा धर्म एक खोज है प्रवृत्ति के शोधन की, काम के परिष्कार की। इसमें इस बात पर बल नहीं दिया गया कि अर्थ का अर्जन अधिक मत करो। इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy