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________________ प्रश्न है परिष्कार का 29 है। अर्थ के आधार पर ही कामनाओं को पूरा किया जाता है। मन में कामना जागती है। अर्थ-व्यय से वह पूरी हो जाती है। मन में कामना जागी, अमुक प्रकार का कपड़ा पहनूं, अमुक मिठाई खाऊं। पास में पैसा है। बाजार में गया, कपड़ा खरीदा, पहन लिया। मिठाई खरीदी, खा ली। कामना की पूर्ति हो गई। मानसिक अशांति का कारण निरंकुश कामना और निरंकुश अर्थ-ये दोनों अपरिष्कृत रहकर व्यक्ति में जो परिवर्तन लाते हैं, वह परिवर्तन मानसिक अशांति को जन्म देता है। मानसिक अशांति के दो मुख्य कारण हैं-निरंकुश काम और निरंकुश अर्थ। जब तक इन दोनों का परिष्कार घटित नहीं होता, तब तक आदमी बेचैनी, अवसाद, हीनता आदि से बच नहीं सकता। आदमी कामनाओं से आक्रान्त है। उसकी पूर्ति के लिए उसने अर्थ भी जुटा लिया उसकी मानसिक व्यग्रता आकाश को छूने लग गई। वह और अशान्त हो गया। आज के विकसित राष्ट्र, जो साधनों से सम्पन्न हैं, जिनके पास प्रचुर वैभव है, संपत्ति है, अर्थ के स्रोत हैं, वे इस मानसिक अशांति के जीते-जागते उदाहरण हैं। एक भाई ने बताया-संसार का छियालीस प्रतिशत धन केवल एक राष्ट्र अमेरिका के पास है। शेष चौवन प्रतिशत धन सारे संसार के पास है। एक राष्ट्र के पास इतना प्रचुर धन? क्या होगा? जितना प्रचुर धन उतना ही प्रचुर असंतोष । इस असंतोष की तुलना में कहा जा सकता है कि विश्व में जितने अपराध होते हैं उनका छियालीस प्रतिशत हिस्सा अमेरिका को मिलेगा और चौवन प्रतिशत शेष संसार को प्राप्त होगा। कितना अपराध! धन की प्रचुरता, असंतोष की प्रचुरता और अपराध की प्रचुरता। इन सारे तथ्यान्वेषणों से एक निष्कर्ष निकलता है-अपरिष्कृत काम और अर्थ नई व्याधियों को उत्पन्न करते हैं, नई समस्याओं को जन्म देते हैं, मानसिक दुःखों को प्रगट करते हैं। इस स्थिति में यह अपेक्षा प्रत्यक्ष होती है कि इन दोनों का परिष्कार किया जाए। परिष्कार का साधन परिष्कार का साधन है धर्म । धर्म के द्वारा काम का परिष्कार किया जा सकता है। धर्म के द्वारा अर्थ का परिष्कार किया जा सकता है। कामशुद्धि और अर्थशुद्धि-दोनों अपेक्षित हैं। आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति में विषों का उपयोग होता है। उसमें पारद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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