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आर्थिक विकास और नैतिक मूल्य
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की व्यापक श्रृंखला तैयार नहीं की। यदि ऐसा होता तो अहिंसा के प्रशिक्षित कार्यकर्ता हिंसा के वातावरण को बदलने में सफल हो जाते। आज भी अवकाश है। अहिंसक व्यक्तित्व के निर्माण के लिए प्रशिक्षण की सैद्धान्तिक
और प्रायोगिक परिकल्पना होनी चाहिए। पारिवारिक जीवन से लेकर सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन में व्याप्त हिंसा को दूर कर समानता, सापेक्षता और शान्तिपूर्ण सहअस्तिव की जीवनशैली का विकास किया जा सके। इस कार्य के लिए आवश्यक है-अणुव्रत, सर्वोदय, राजनीति, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि क्षेत्रों के धुरीण व्यक्ति गहन चिन्तन और मंथन करें, अहिंसक जीवनशैली समाज के सामने प्रस्तुत करें। अहिंसात्मक स्तुति और महिमागान समाज-व्यवस्था को बदलने के लिए कारगर नहीं होगा। कारगर होगा प्रशिक्षण का व्यापक कार्यक्रम। क्या हम इस पर गंभीरता से चिन्तन कर सकते हैं? आर्थिक विकास : दो धाराएं __ आर्थिक विकास की दो धाराएं विद्यमान हैं। एक धारा के उद्गम स्रोत अर्थशास्त्री हैं। दूसरी धारा के उद्गम स्रोत नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा में विश्वास करने वाले हैं। अर्थशास्त्री की दृष्टि से आर्थिक विकास ही समाज की प्रगति और विकास का मूल आधार है। अध्यात्मवेत्ता की दृष्टि से स्वस्थ समाज की रचना के लिए आर्थिक विकास पर अंकुश लगाना आवश्यक है। सत्याग्रह मीमांसा (सितम्बर 1990) में दो लाख प्रकाशित हैं। एक जयप्रकाश नारायण का और दूसरा मेरा । उनका अध्ययन आर्थिक विकास के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए उपयोगी होगा। जयप्रकाश नारायण की बात 'आवश्यकताओं पर नियंत्रण ही समाजवाद की नींव है' -इस शीर्षक से शुरू होती है। उनका समग्र चिन्तन इस प्रकार है : ___..एशिया का प्रत्येक देश आज औद्योगीकरण की ओर कदम बढ़ाने के लिए उत्सुक है। जोर-जबरदस्ती से जब कदम आगे बढ़ाया जाता है तो उसका क्या परिणाम होता है, यह रूस और दूसरे कम्युनिस्ट देश हमें चेतावनी दे रहे हैं। इसलिए एशिया वालों को समाजवाद तक पहुंचने का अपना ही कोई रास्ता और औद्योगीकरण का अपना ही कोई नमूना खोज लेना चाहिए। यह सोचना ही भ्रामक होगा कि यदि लोकतान्त्रिक व्यवस्था के संरक्षण में औद्योगीकरण की प्रक्रिया चलती है, तो फिर औद्योगीकरण की गति से कोई डर नहीं है। एक निश्चित हद से बाहर जाते ही औद्योगीकरण की गति स्वतः अनिवार्य रूप से तानाशाही की परिस्थिति पैदा कर लेगी। ___ (पूंजीवाद का तो है ही पर) समाजवादी और साम्यवादी इन दोनों का भी जोर भौतिक समृद्धि, उत्पादन की उत्तरोत्तर वृद्धि और जीवन स्तर को अधिकाधिक ऊंचा उठाने पर रहता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की
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