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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
19वीं सदी का मध्य आते-आते संप्रदायों ने पूंजीवाद से समझौता कर लिया और उनका तीव्र आघात पड़ा उस समय की जगती हुई साम्यवादी विचारधारा पर। इसका परिणाम हुआ कि मार्क्स और एन्गेल्स जीवन के शेष-काल तक, इन्हीं के उत्तर देने में उलझे रहे। मृत्युकाल से कुछ दिन पहले एन्गेल्स ने अपने एक पत्र में स्वीकार किया था 'मार्क्स और मैं अंशतः नवयुवकों में इस भावना के फैलाने का जिम्मेवार हूं कि आर्थिक पक्ष ही सब कुछ है। एक तो विरोधियों के आक्रमणों के जवाब देने में हमें इस पर जरूरत से ज्यादा जोर डालना पड़ा। दूसरे न हमें समय मिला, न अवसर कि दूसरे पक्ष को भी पूरे तौर पर रख सकें।'
इसका नतीजा यह हुआ कि आर्थिक पहलू ही सब कुछ है-ऐसा अर्द्धसत्य ही पूर्णसत्य की तरह समाजवादी साहित्य में प्रचलित हो गया।
मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी है, इसलिए उसे सर्वाधिक सुख-सुविधा का उपभोग करने का अधिकार है, इस अवधारणा ने मनुष्य की श्रेष्ठता के अहं और क्रूरता को जन्म दिया है। उसमें पर्यावरण को प्रदूषित करने की उच्छंखल मनोवृत्ति पनपी है। भूमि का अतिरिक्त दोहन हुआ है, जंगल कटे हैं, पशु-पक्षियों और जलचरों की सैकड़ों-सैकड़ों प्रजातियां नष्ट हुई हैं। नाड़ीतंत्रीय विकास और बौद्धिक विकास की दृष्टि से मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ हो सकता है, किन्तु श्रेष्ठता का अर्थ यह नहीं कि वह अपनी सुख-सुविधा और मनोरंजन के लिए दूसरे प्राणियों के प्रति निर्दयतापूर्ण व्यवहार करे।
कोई धनवान होता है, कोई गरीब, इसका हम क्या करें, यह अपने-अपने भाग्य का परिणाम है । इस भाग्यवादी अवधारणा ने गरीबी को संस्करण दिया है, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं को बदलने में अवरोध पैदा किया
__ मनुष्य में परोक्ष के प्रति अधिक आकर्षण रहता है। धर्म परोक्ष सत्ता का प्रतिपादक है इसलिए उसके प्रति जनता में आकर्षण है। धर्म की साधना कठिन है। उपासना का मार्ग सरल है। मनुष्य सरल को अधिक पसन्द करता है। जहां धर्म के साथ नैतिकता नहीं होती, चरित्र का अनुबंध नहीं होता वहां अहं पनपता है, मनुष्य को बांटने की प्रवृत्ति शुरू हो जाती है, जातिभेद और रंगभेद को प्रथम पंक्ति में आसन मिल जाता है।
भौतिक पदार्थ जीवन-निर्वाह के साधन हैं, वे साध्य नहीं हैं। जब
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