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बदलाव कैसे आए?
सरल नहीं है मनुष्य को बदलना। बहुत कठिन है नैतिक मूल्यों का विकास । बहुत-बहुत कठिन है आध्यात्मिक चेतना का रूपांतरण। कठिनतम है आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण। क्या इक्कीसवीं शताब्दी कठिन को सरल बनाने की शताब्दी होगी? बीसवीं शताब्दी पदार्थ के विकास की शताब्दी रही है । इक्कीसवीं शताब्दी अपदार्थ की शताब्दी बने, यह अपेक्षा है। पदार्थ और अपदार्थ-दोनों का सम्यक् योग ही युग की समस्या को सुलझा सकता है। बदलाव केवल बदलाव के लिए नहीं, किन्तु नव निर्माण के लिए जरूरी है। मनुष्य की प्रकृति को समझे बिना बदलाव की परिभाषा और व्याख्या नहीं की जा सकती। हजारों-हजारों वर्ष पहले की घटनाओं और मनुष्य के आचार-व्यवहार का अध्ययन करें, साथ-साथ उसके वर्तमान को पढ़ें और भविष्य की कल्पना करें तो तीनों कालखंडों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं मिलेगा। अपराध-चेतना से मुक्त और अपराध-चेतना से युक्त-दोनों प्रकार के मनुष्य अतीत में भी थे, वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी होंगे, ऐसा कहा जा सकता है। भाव, विचार, रुचि, ज्ञान और चरित्र की भिन्नता रही है और रहेगी। ऐसा कोई यंत्र नहीं है जो मनुष्य को एक सांचे में ढालकर बाजार में बेच सके। जिस दिन मनुष्य यंत्र का उत्पाद (प्रोडक्शन) बन जाएगा, उस दिन वह मनुष्य की अस्मिता को कायम नहीं रख सकेगा।
हम यह मानकर चलें-इस दुनिया में अच्छाई और बुराई, चेतना का कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष-ये दोनों पंक्तियां समय के पृष्ठ पर अंकित रहने वाली हैं। हजारों वर्ष पहले भी मनुष्य ने प्रयत्न किया-सब लोग अच्छे हों, कोई बुरा न हो, सब सदाचार में निष्णात रहें, कोई अपराधी न हो। आज भी वही प्रयत्न चालू है और ऐसा प्रयत्न निरन्तर होना चाहिए। यदि बुराई मिट नहीं सकती तो फिर उसे मिटाने का प्रयत्न क्यों? इसका उत्तर किसी ग्रंथ अथवा ग्रंथी से पाने की अपेक्षा दीपक, बिजली अथवा सूई से पाना बहुत अच्छा है। अंधकार न कभी मिटा और आज भी नहीं मिट रहा है। सूर्य की रश्मियां अंधकार को प्रकाश में बदल देती हैं। यही काम दीया करता है और बिजली भी करती है। यदि अंधकार से मुक्ति पाने का प्रयत्न न चलता तो
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