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________________ पर्यावरण 97 हमारे सामने दो जगत हैं--सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत (दृश्य जगत ) । स्थूल जगत व्यक्त चेतना वाला जगत है और सूक्ष्म जगत अव्यक्त चेतना वाला जगत है । अव्यक्त चेतना का अर्थ है - सूक्ष्म जीवों की इन्द्रियां विकसित नहीं हैं, किन्तु उनकी अन्तश्चेतना तीव्र है । आज भी मनुष्य ने अपनी इन्द्रियों को पाकर कुछ खोया भी है। उसने अपनी अतीन्द्रिय चेतना के दरवाजे बन्द कर लिए हैं । प्रत्येक व्यक्ति के पास इन्द्रियातीत चेतना है । हम उसे प्रातिभ-ज्ञान कहें या प्रज्ञा कहें, वह प्रत्येक मनुष्य के पास है । जरूरत है सूक्ष्म नियमों को जानने की, एकाग्र होने की और इन्द्रियों से कम काम लेने की । अतीन्द्रिय चेतना के जागरण के लिए एक संतुलन अपेक्षित है । यदि हम इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता का सूत्र सीख जाएं तो हमारी अतीन्द्रिय चेतना जाग सकती है, सूक्ष्म जगत के सूक्ष्म प्राणियों के साथ हमारा तादात्म्य हो सकता है । विकास की प्रक्रिया : मूल तत्व विकास की प्रक्रिया का मूल आधार है गति। दूसरी भाषा में त्रस - जीव विकास की प्रक्रिया के मूल तत्व हैं। स्थावर-स् -सृष्टि से हम त्रस - सृष्टि पर आएं । स्थावर पेड़ बढ़ जाते हैं, वनस्पति बढ़ जाती है पर नया निर्माण कुछ भी नहीं होता । हमारी गति ही सारे नव-निर्माण का आधार बनती है । पाँच स्थावर के बाद छठा स्थान है त्रस जगत का । उसी को भगवान महावीर ने संसार कहा है- एस संसारेत्ति पवुच्चई । संसार का मतलब ही गतिशील होना है । स्थिरता का नाम संसार नहीं है । हमारा यह संसार त्रस - जीवी है। इसी ने मकान बनाए हैं, कपड़े बनाए हैं, फसलें उगाई हैं। एक जनरल स्टोर में इतने आइटम रहते हैं कि जिन्हें देखने के लिए कोई व्यक्ति चला जाए तो पूरा दिन देखने में ही बीत जाए । बाजार लोगों की भीड़ से भरे रहते हैं । साड़ियों की दुकान पर महिलाओं की भीड़ लगी रहती है । जनरल स्टोर पर रोजमर्रा के काम आने वाले पदार्थों को खरीदने के लिए लोग आतुर दिखाई देते हैं । इतने प्रकार की खाने और पहनने की चीजों का विकास हुआ है, जिनकी गिनती करना भी सहज सम्भव नहीं होता । प्रश्न है- क्या इतने पदार्थों की जरूरत है? आदमी ने कृत्रिम आवश्यकता का बहुत विस्तार कर लिया है। गति का यह एक परिणाम है । इस गतिशीलता ने विकास और निर्माण की गति को आगे बढ़ाया है । साथ-साथ इसने मनुष्य में लोभ और सौन्दर्य की भावना को भी आगे बढ़ाया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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