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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ?
को समाधान नहीं मिलेगा। सृप्टि-सन्तुलन के लिए, पर्यावरण के लिए अर्थशास्त्र की वर्तमान अवधारणाओं को बदलना होगा। उन्हें बदले बिना इन समस्याओं को समाहित नहीं किया जा सकता।
__ इच्छा बढ़ाओ, उत्पादन बढ़ाओ-इस गलत अवधारणा के कारण ही वनस्पति जगत के साथ अन्याय हो रहा है। आज विकास के कृत्रिम साधनों ने प्रकृति के साथ अन्यायपूर्ण और क्रूर बरताव शुरू किया है। इसका विराम कहां होगा, कहा नहीं जा सकता। प्रश्न है संवेदन का
सारा संसार जीवों से भरा पड़ा है। जब तक अहिंसा की बात करने वाला इस सचाई को जान न ले, सूक्ष्म जीवों के नियमों को न जान ले तब तक वह अहिंसा की बात को पूरा कैसे जानेगा? इसीलिए कहा गया है-जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, वह संयम और अहिंसा को कैसे जानेगा?
जो जीवे विनयाणाई, अजीवे विन याणई।
जीवाजीवे अयाणतो, कहं से नाहिई संजमं।। पहले यह ज्ञान कर लेना आवश्यक है कि जीव क्या है? अजीव क्या है? जीव और अजीव को जानने के बाद अहिंसा की बात सहज समझ में आ सकती है।
एक प्रश्न और उभरता है-जो सूक्ष्म जीव हैं, वे संवेदनशील हैं। क्या उन्हें सुख-दुःख होता है? सूक्ष्म जीव अत्यन्त सूक्ष्म हैं, एक मिट्टी की डली में असंख्य जीव हैं, वनस्पति के छोटे से कतरे में अनंत जीव हो सकते हैं। उनकी चेतना भी व्यक्त नहीं है। क्या उन्हें सुख-दुःख का संवेदन होता है? इस प्रश्न पर भी अहिंसा के सन्दर्भ में विचार किया गया। इन सूक्ष्म जीवों को सुख-दुःख का संवेदन होता है, यह समझना भी बड़ा कठिन था। भगवान महावीर ने कहा-यह सही है कि इन छोटे जीवों की चेतना अव्यक्त होती है। इनमें इन्द्रिय भी एक होता है-स्पर्शन, फिर भी इन्हें सुख और दुःख का संवदेन होता है। इनमें मन नहीं होता परन्तु अनिन्द्रिय ज्ञान होता है। अनिन्द्रिय ज्ञान : दो अर्थ
__ अनिन्द्रिय ज्ञान के दो अर्थ हैं। उसका एक अर्थ है-मन और दूसरा अर्थ है-ओघ संज्ञा । आज के विज्ञान ने इस बात को कैसे पकड़ा, यह आश्चर्य का विषय है। वैज्ञानिकों ने माना है-वनस्पति में कलेक्टिव माइंड (ओघ संज्ञा) होता है। वनस्पति के जीव बात को इतने विचित्र ढंग से पकड़ते हैं,
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