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________________ पर्यावरण 93 रोग से ग्रस्त होता है, उसकी भूख दिन में सौ-सौ रोटियां खाने पर भी नहीं मिटतीं। इस कृत्रिम भूख-भस्मक व्याधि का कभी अन्त नहीं आता । वह व्यक्ति एवं समाज के लिए समस्या बन जाती है। आज के समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों ने कृत्रिम भूख को बढ़ा कर पूरे मानव समाज को संकट में डाल दिया है। अर्थशास्त्र का सूत्र है-इच्छा को बढ़ाते चले जाओ। आज इस गलत सूत्र के परिणामस्वरूप हिंसा बढ़ रही है, पर्यावरण का सन्तुलन विनष्ट हो रहा है। आवश्यकता की पूर्ति करना जरूरी है, इस बात को उचित माना जा सकता है, किन्तु आवश्यकताओं को पैदा करना और उनकी पूर्ति करते चले जाना युक्ति-संगत नहीं है। आवश्यकता की उत्पत्ति और उसकी पूर्ति का एक चक्र है। उस चक्र का कहीं अंत नहीं होता। इस सचाई से साधारण लोग भी परिचित रहे हैं। राजस्थानी का प्रसिद्ध दोहा है तन की तृष्णा तनिक है, तीन पाव के सेर। मन की तृष्णा अनन्त है, गिलै मेर का मेर।। वर्तमान जगत में जिस सचाई का प्रतिपादन किया जा रहा है, उससे यह सचाई भिन्न है। आवश्यकता की पूर्ति को अनुचित नहीं माना जा सकता, किन्तु प्रश्न है-मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं कितनी हैं? वे बहुत सीमित हैं। यदि आवश्यकता के आधार पर चला जाता तो दुनिया के सामने पर्यावरण का संकट पैदा नहीं होता, पर्यावरण की समस्या से विश्व संत्रस्त नहीं होता। व्यक्ति ने तन के स्थान पर मन की तृष्णा को बिठा दिया। जब मन की तृष्णा जाग जाती है तब आवश्यकताएं बढ़ती चली जाती हैं। तृष्णा और इच्छा का कोई अन्त नहीं है, कोई सीमा नहीं है । महावीर ने कहा-इच्छा हु आगाससमा अणंतिया-इच्छा आकाश के समान अनन्त है। जब इच्छा अनंत और असीम बन जाती है तब विनाश अवश्यंभावी बन जाता है। आज विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है। इसका कारण है अर्थशास्त्र का अनसोचा-अनसमझा सिद्धान्त । अर्थशास्त्र का अभिमत है-जितनी इच्छा बढ़ेगी, उतना ही उत्पाद बढ़ेगा, उतनी ही समृद्धि बढ़ेगी। इस सिद्धान्त ने सचमुच विनाश को निमंत्रण दे दिया है। अगर अर्थशास्त्र का यह सिद्धान्त नहीं होता तो इकोलॉजी के विकास की जरूरत ही नहीं होती। आज सृष्टि-संतुलन के लिए प्रयत्न किये जा रहे हैं। लोग चाहते हैं-सृष्टि का संतुलन न गड़बड़ाए। किन्तु जब तक अर्थशास्त्र का यह सिद्धान्त व्यक्ति के जीवन-व्यवहार को संचालित कर रहा है तब तक सृष्टि-सन्तुलन की चिन्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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