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का। सर्व स्वकृतप्रायश्चित्त की अपूर्णता में नयी प्रतिसेवना के प्रायश्चित्त का समावेश करे ।
जो भिक्षु अनेक बार चातुर्मासिक, सातिरेक चातुर्मासिक अनेक बार पंचमासिक, सातिरेक पंच मासिक, इन परिहार स्थानों में से किसी एक परिहार स्थान की प्रतिसेवना करे, निष्कपट आलोचना करता हुआ स्थापना स्थाप कर उसकी कमी करे, और उसीमें पूर्ण कर, सकपट को भी ऐसा व्यवहृत करे। स्थापनीय स्थापित करके वैयावृत्त्य करे, स्थापित में भी फिर प्रतिसेवना करने पर सम्पूर्ण प्रायश्चित्त चढा दे । निष्कपट में निष्कपट, निष्कपट में सकपट, सकपट में निष्कपट, सकपट में सकपट निष्कपट आलोचना करते हुए का सर्व यह सुकृत साधनीय है जो इस प्रस्थापना में प्रस्थापित करता हुआ समाप्ति करते हुए फिर प्रतिसेवना करे तो वह भी सम्पूर्ण उसीमें चढ़ा देना। प्रायश्चित्त पूरा करते हुए यदि प्रतिसेवना करे तो मूल राशि में उसे चढा देना। इसी तरह १६ और २० वें सूत्र को समझना।
बीसवें उद्देशक के कुल सूत्र ५३ हैं और सभी प्रायश्चित्त दान विधि के साथ सम्बन्ध रखते हैं, एक ही अपराध की अनेक बार आपत्ति होने पर उसकी स्थापना और आरोपणा द्वारा विशुद्धि करने की विधियां लिखी हुई हैं व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देशक के बीस सूत्र और निशीथ के बीसवें उद्देशक के प्राथमिक २० सूत्र अभिन्न हैं।
निशीथ के तृतीयोद्देशक के सूत्र १६ से ६६ वें शीर्ष द्वारिका सूत्र तक ५४ होते हैं, जबकि चूर्णिकार ने केवल ४० सूत्र होने की सूचना की है, चतुर्थ उद्देशक में ४८ से १०१ पर्यन्त के सूत्रों में अन्योन्य पाद सम्मार्जन, आदि के प्रायश्चित्त लिखे हैं, ये ही सूत्र उद्देशक सातवें में और १७ वें में सामान्य परिवर्तन के साथ लिखे मिलते हैं, षष्ठ उद्देशक में सूत्र २४ से ७६ तक के सूत्र सप्तमोद्देशक के सूत्रों से मिलते जुलते हैं। १४ वे उद्देशक के सूत्र १२ से २३ पर्यन्त पात्र के सम्बन्ध में वर्णन करते हैं, वैसा ही
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